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देख हृदय मेरा यह रोता / गरिमा सक्सेना

बचा पड़ा झूठन में
टुकड़ा रोटी का
देख हृदय मेरा यह रोता

भूख, अन्न का मोल समझती
भरे पेट पकवान न भाता
जो कचरे में फिका अन्न है
वही किसी की क्षुधा मिटाता
सोच नहीं पाते
क्यों हम केवल इतना
कोई भूखा भी है सोता

नहीं अन्न का मोल रुपैया
अन्न बड़ी मेहनत से उगता
इसे उगाने की खातिर ही
कोई धूप, शीत सब सहता
पर भूखा परिवार
उसी का है मरता
जोकि अन्न धरती में बोता

इक दाने को तरसें कुछ जन
कहीं भरा बोरों में सड़ता
सरकारी गोदाम भरे हैं
मगर न पेट दीन का भरता
आह! यही दुर्भाग्य
देश का? अजब मूर्खता
'गरिमा' नष्ट अन्न है होता