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देर तक हवा में / अज्ञेय

 
देर तक हवा में
अलूचों की पंखुरियों को
तिरछी झरते
देखा किया हूँ।

नहीं जानता कि तब
अतीत में कि भविष्य में
कि निरे वर्तमान के
क्षण में जिया हूँ।
भले ही उस बीच बहुत-सी

यादों को उमड़ते
आशाओं को मरते
और हाँ, गहरे में कहीं एक
नयी टीस से अपने को सिहरते

अनजाने पर लगातार
पहचाना किया हूँ।
यों न जानते हुए जीना
क्या सही है?

पर क्या पूछने की एकमात्र
बात यही है?
और मैं ने यह जो होने, जीने,
झरने, सिहरने की

बात कही है,
उस सब में क्या सच वही नहीं है
जो नहीं है?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 9 मार्च, 1969