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देवदार की तरह / स्वाति मेलकानी

हर दिन
हर ओर फैलता
और
फिर लौट आता
मोटे तने से चिपकी शाख सा
प्रश्नशून्य होकर।
देवदार की तरह
बढ़ रहा है जीवन।

अब नहीं होता विस्मय
नये क्षितिज के
दिख जाने पर।
कितने पतझड़
छुए बिना ही गुजर गये हैं।
और न जाने
कितने अंबर भुला दिये हैं।

देवदार की तरह
बढ़ रहा है जीवन।
बढ़ती उम्र के साथ
निरन्तर घटता विस्तार
और
शाखों की सिमटती परिधि
कहीं नहीं पहुँचती
सिवाय
उस सुदूर
नुकीले सिरे तक
जिसे शीर्ष कहते हैं।