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देवपाल-दूती-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

कुंभलनेर-राय देवपालू । राजा केर सत्रु हिय -सालू ॥
वह पै सुना कि राजा बाँधा । पाछिल बैर सँवरि छर साधा ॥
सत्रु-साल तब नेवरै सोई । जौ घर आब सत्रु कै जोई ॥
दूती एक बिरिध तेहि ठाऊँ । बाम्हन जाति, कुमोदिनि नाऊँ ॥
ओहि हँकारि कै बीरा दीन्हा । तोरे बर मैं बर जिउ कीन्हा ॥
तुइ जो कुमोदिनि कँवल के नियरे । सरग जो चाँद बसै तोहि हियरे ॥
चितउर महँ जो पदमिनि रानी । कर बर छर सौं दे मोहिं आनी ॥

रूप जगत-मन-मोहन औ पदमावति नावँ ।
कोटि दरब तिहि देइहौं, आनि करसि एहि ठावँ ॥1॥

कुमुदिनि कहा `देखु, हौं सो हौं । मानुष काह, देवता मोहौं ॥
जस काँवरु चमारिनि लोना । को नहिं छर पाढत कै टोना ॥
बिसहर नाचहिं पाढत मारे । औ धरि मूँदहि घालि पेटारे ॥
बिरिछ चलै पाढत कै बोला । नदी उलटि बह, परबत डोला ॥
पढत हरै पंडित मन गहिरे । और को अंध, गूँग औ बहिरै ॥
पाढत ऐस देवतन्ह लागा । मानुष कहँ पाढत सौं भागा ?॥
चढि अकास कै काढत पानी । कहाँ जाइ पदमावति रानी' ॥

दूती बहुत पैज कै बोली पाढत बोल ।
जाकर सत्त सुमेरू है, लागे जगत न डोल ॥2॥

दूती बहुत पकावन साधे । मोतिलाडू औ खरौरा बाँधे ॥
माठ, पिराकैं, फैनी, पापर । पहिरे बूझि दूत के कापर ॥
लेइ पूरी भरि डाल अछूती । चितउर चली पैज कै दूती ॥
बिरिध बेस जौ बाँधे पाऊ । कहाँ सो जोबन, कित बेवसाऊ ?॥
तन बूढा, मन बूढ न होई । बल न रहा, पै लालच सोई ।
कहाँ सो रूप जगत सब राता । कहाँ सो हस्ति जस माता ॥
कहाँ सो तीख नयन, तन ठाढा । सबै मारि जोबन-पन काढा ॥

मुहमद बिरधि जो नइ चलै, काह चलै भुइँ टोह ।
जोबन-रतन हेरान है, मकु धरती महँ होइ ॥3॥

आइ कुमोदिनी चितउर चढी । जोहन-मोहन पाढत पढी ॥
पूछि लीन्ह रनिवास बरोठा । पैठी पँवरी भीतर कोठा ॥
जहाँ पदमिनी ससि उजियारी । लेइ दूती पकवान उतारी ॥
हाथ पसारि धाइ कै भेंटी । "चीन्हा नहिं, राजा कै बेटी ?॥
हौं बाम्हनि जेहि कुमुदिनि नाऊँ । हम तुम उपने एकै ठाऊँ ॥
नावँ पिता कर दूबे बेनी । सोइ पुरोहित गँधरबसेनी ॥
तुम बारी तब सिंघलदीपा । लीन्हे दूध पियाइउँ सीपा ॥

ठाँव कीन्ह मैं दूसर कुँभलनेरै आइ ।
सुनि तुम्ह कहँ चितउर महँ, कहिउँ कि भेटौं जाइ ॥4॥

सुनि निसचै नैहर कै कोई । गरे लागि पदमावति रोई ॥
नैन-गगन रबि अँधियारे । ससि-मुख आँसु टूट जनु तारे ॥
जग अँधियार गहन धनि परा । कब लगि सखी नखतन्ह निसि भरा ॥
माय बाप कित जनमी बारी । गीउ तूरि कित जनम न मारी ?॥
कित बियाहि दुख दीन्ह दुहेला । चितउर पंथ कंत बँदि मेला ॥
अब एहि जियन चाहि भल मरना । भएउ पहार जन्म दुख भरना ॥
निकसि न जाइ निलज यह जीऊ । देखौं मँदिर सून बिनु पीऊ ॥

कुहुकि जो रोई ससि नखत नैन हैं रात चकोर ।
अबहूँ बोलैं तेहि कुहुक कोकिल, चातक, मोर ॥5॥

कुमुदिनि कंठ लागि सुठी रोई । पुनि लेइ रूप-डार मुख धोई ॥
तुइ ससि-रूप जगत उजियारी । मुख न झाँपु निसि होइ अँधियारी ॥
सुनि चकौर-कोकिल-दुख दुखी । घुँघची भई नैन करमुखी ॥
केतौ धाइ मरै कोइ बाटा । सोइ पाव जो लिखा लिलाटा ॥
जो बिधि लिखा आन नहिं होई । कित धावै, कित रौवै कोई ॥
कित कोउ हींछ करै ओ पूजा । जो बिधि लिखा होइ नहिं दूजा ॥
जेतिक कुमुदिनि बैन करेई । तस पदमावति स्रवन न देई ॥

सेंदुर चीर मैल तस, सूखि रही जस फूल ।
जेहि सिंगार पिय तजिगा जनम न पहिरै भूल ॥6॥

तब पकवान उघारा दूती । पदमावति नहिं छुवै अछूती ॥
मोहि अपने पिय केर खमारू । पान फूल कस होइ अहारू ?॥
मोकहँ फूल भए सब काँटै । बाँटि देहु जौ चाहहु बाँटै ॥
रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती । और न छुवौं सो हाथ सँकेती ॥
ओहि के रँग भा हाथ मँजीठी । मुकता लेउँ तौ घुँघची दीठी ॥
नैन करमुहें, राती काया । मोति होहिं घुँघची जेहि छाया ॥
अस कै ओछ नैन हत्यारे । देखत गा पिउ, गहै न पारे ॥

का तोर छुवौं पकवान, गुड करुवा, घिउ रूख ।
जेहि मिलि होत सवाद रस, लेइ सो गएउ पिउ भूख ॥7॥

कुमुदिनि रही कँवल के पासा । बैरी सूर, चाँद कै आसा ॥
दिन कुँभिलानि रही, भइ चूरू । बिगसि रैनि बातन्ह कर भूरू ॥
कस तुइ बारि ! रहसि कुँभलानी । सूखि बेलि जस पाव न पानी ॥
अबही कँवल करी तुइँ बारी । कोवँरि बैस, उठत पौनारी ॥
बेनी तोरि मैलि औ रूखी । सरवर माहँ रहसि कस सूखी ?॥
पान-बेलि बिधि कया जमाई । सींचत रहै तबहि पलुहाई ॥
करु सिंगार सुख फूल तमोरा । बैठु सिघासन, झूलु हिडोरा ॥

हार चीर निति पहिरहु, सिर कर करहु सँभार ।
भोग मानि लेहु दिन दस, जोबन जात न बार ॥8॥

बिहँसि जो जोबन कुमुदिनि कहा । कँवल न बिबगसा, संपुट रहा ॥
ए कुमुदिनि! जोबन तेहि माहा । जो आछै पिउ के सुख-छाहाँ ॥
जाकर छत्र सो बाहर छावा । सो उजार घर कौन बसावा ?॥
अहा न राजा रतन अँजोरा । केहिक सिंघासन, केहिक पटोरा ? ॥
को पालक पौढै, को माढी ? सोवनहार परा बँदि गाढी ॥
चहुँ दिसि यह घर भा अँधियारा । सब सिंगार लेइ साथ सिधारा ॥
कया बेलि तब जानौं जामी । सींचनहार आव घर स्वामी ॥

तौ लहि रहौं झुरानी जौ लहि आव सो कंत ।
एहि फूल, एहि सें र नव होइ उठै बसंत ॥9॥

जिनि तुइ, बारि ! करसि अस जीऊ । जौ लहि जोबन तौ लहि पीऊ ॥
पुरुष संग आपन केहि केरा । एक कोहाँइ, दुसर सहुँ हेरा ॥
जोबन-जल दिन दिन जस घटा । भँवर छपान, हंस परगटा ॥
सुभर सरोवर जौ लहि नीरा । बहु आदर, पंखी बहु तीरा ॥
नीर घटे पुनि पूछ न कोई । बिरसि जो लीज हाथ रह सोई ॥
जौ लगि कालिंदी, होहि बिरासी । पुनि सुरसरि होइ समुद परासी ॥
जोबन भवँर, फूल तन तोरा । बिरिध पहुँचि जस हाथ मरोरा ॥

कृस्न जो जोबन कारनै गोपितन्ह कै साथ ।
छरि कै जाइहि बानपै, धनुक रहै तोरे हाथ ॥10॥

जौ पिउ रतनसेन मोर राजा । बिनु पिउ जोबन कौने काजा ॥
जौ पै जिउ तौ जोबन कहे । बिनु जिउ जोबन काह सो अहे ?॥
जौ जिउ तौ यह जोबन भला । आपन जैस करै निरमला ॥
कुल कर पुरुष-सिंघ जेहि खेरा । तेहि थर कैस-सियार बसेरा ?॥
हिया फार कूकुर तेहि केरा । सिंघहिं तजि सियार-मुख हेरा ॥
जोबन -नीर घटे का घटा ?। सत्त के बर जौ नहिं हिय फटा ॥
सघन मेघ होइ साम बरीसहिं । जोबन नव तरिवर होइ दीसहि ॥

रावन पाप जो जिउ धरा दुवौ जगतमुँह कार ।
राम सत्त जो मन धरा. ताहि छरै को पार ? ॥11॥

कित पावसि पुनि जोबन राता । मैँमँत, चढा साम सिर छाता ॥
जोबन बिना बिरिध होइ नाऊँ । बिनु जोबन थाकै सब ठाऊँ ॥
जोबन हेरत मिलै न हेरा । सो जौ जाइ, करै नहिं फेरा ॥
हैं जो केस नग भँवर जो बसा । पुनि बग होहिं, जगत सब हँसा ॥
सेंवर सेव न चित्त करु सूआ । पुनि पछिताहि अंत जब भूआ ।
रूप तोर जग ऊपर लोना । यह जोबन पाहुन चल होना ॥
भोग बिलास केरि यह बेरा । मानि लेहु, पुनि को केहि केरा ? ॥

उठत कोंप जस तरिवर तस जोबन तोहि रात ।
तौ लगि रंग लेहु रचि, पुनि सो पियर होइ पात ॥12॥

कुमुदिनि-बैन सुनत हिय जरी । पदमिनि-उरहि आगि जनु परी ॥
रंग ताकर हौं जारौं काँचा । आपन तजि जो पराएहि राँचा ।
दूसर करै जाइ दुइ बाटा । राजा दुइ न होहिं एक पाटा ॥
जेहि के जीउ प्रीति दिढ होई । मुख सोहाग सौं बैठे सोई ॥
जोबन जाउ, जाउ सो भँवरा । पिय कै प्रीति न जाइ, जो सँवरा ॥
एहि जग जौ पिउ करहिं न फेरा । ओहि जग मिलहिं जौ दिनदिनहेरा ॥
जोबन मोर रतन जहँ पीऊ । बलि तेहि पिउ पर जोबन जीऊ ॥

भरथरि बिछुरि पिंगला आहि करत जिउ दीन्ह ।
हौं पापिनि जो जियत हौं, इहै दोष हम कीन्ह ॥13॥

पदमावति ! सो कौन रसौई । जेहि परकार न दूसर होई ॥
रस दूसर जेहि जीभ बईठा । सो जानै रस खाटा मीठा ॥
भँवर बास बहु फूलन्ह लेई । फूल बास बहु भँवरन्ह देई ॥
दूसर पुरुष न रस तुइ पावा । तिन्ह जाना जिन्ह लीन्ह परावा ॥
एक चुल्लू रस भरै न हीया । जौ लहि नहिं फिर दूसर पीया ॥
तोर जोबन जस समुद हिलोरा । देखि देखि जिउ बूडै मोरा ॥
रंग और नहिं पाइय बैसे । जरे मरे बिनु पाउब कैसे ?॥

देखि धनुक तोर नैना, मोहिं लाग बिष-बान ।
बिहँसि कँवल जो मानै, भँवर मिलावौं आन ॥14॥

कुमुदिनि ! तुइ बैरिनि, नहिं धाई । तुइ मसि बोलि चढावसि आई ॥
निरमल जगत नीर कर नामा । जौ मसि परै होइ सो सामा ॥
जहँवा धरम पाप नहिं दीसा । कनक सोहाग माँझ जस सीसा ॥
जो मसि परे होइ ससि कारी । सो मसि लाइ देसि मोहिं गोरी ॥
कापर महँ न छूट मसि-अंकू । सो मसि लेइ मोहिं देसि कलंकू ॥
साम भँवर मोर सूरुज करा । और जो भँवर साम मसि-भरा ॥
कँवल भवरि-रबि देखै आँखी । चंदन-बास न बैठै माखी ॥

साम समुद मोर निरमल रतनसेन जगसेन ।
दूसर सरि जो कहावै सो बिलाइ जस फेन ॥15॥

पदमिनि ! पुनि मसि बोल न बैना । सो मसि देखु दुहुँ तोरे नना ॥
मसि सिंगार, काजर सब बोला । मसि क बुंद तिल सोह कपोला ॥
लोना सोइ जहाँ मसि-रेखा । मसि पुतरिन्ह तिन्ह सौं जग देखा ॥
जो मसि घालि नयन दुहुँ लीन्ही । सो मसि फेरि जाइ नहिं कीन्हीं ॥
मसि-मुद्रा दुइ कुच उपराहीं । मसि भँवरा जे कवल भँवाहीं ॥
मसि केसहिं, मसि भौंह उरेही । मसि बिनु दसन सोह नहिं देहीं ।
सो कस सेत जहाँ मसि नाही ?। सो कस पिंड न जेहि परछाहीं ?॥

अस देवपाल राय मसि, छत्र धरा सिर फेर ।
चितउर राज बिसरिगा गएउ जो कुंभलनेर ॥16॥

सुनि देवपाल जो कुंभलनेरी । पंकजनैन भौंह-धनु फेरी ॥
सत्रु मोरे पिउ कर देवपालू । सो कित पूज सिंघ सरि भालू ?॥
दुःख-भरा तन जेत न केसा । तेहि का सँदेस सुनावसि, बेसा ?॥
सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा । पाहन होइ परै जौ हरुवा ।
जेहि ऊपर अस गरुवा पीऊ । सो कस डोलाए डोलै जीऊ ?॥
फेरत नैन चेरि सौ छूटी । भइ कूटन कुटनी तस कूटीं ॥
नाक-कान काटेन्हि, मसि लाई । मूँड मूँडि कै गदह चढाई ॥

मुहमद बिधि जेहि गरु गढा का कोई तेहि फूँक ।
जेहि के भार जग थिर रहा, उडै न पवन के झूँक ॥17॥


(1) राजा केर = राजा रत्नसेन का । हिय सालू = हृदय में कसकने वाला । पै = निश्चय । छर = छल । सत्रु-साल तब नेवरै = शत्रु के मन की कसर तब पूरी पूरी निकलती है । नेवरै = पूरी होती है । जोइ = जोय, स्त्री ।

(2) का नहिं छर = कौन नहीं छला गया ? पाढत कै = पढते हुए । पाढत = पढंत, मंत्र जो पढा जाता है, टोना, मंत्र, जादू । भागा = बचकर जा सकता है । पैज = प्रतिज्ञा ।

(3) पकावन = पकवान । साधे = बनवाए । खरौरा = खँडौरा, खाँड या मिस्री के लड्डू । बूझि = खूब सोच समझकर । कापर कपडे । डाल = डला या बडा थाल । जौ बाँधे पाऊँ = पैर बाँध दिए अर्थात् बेबस कर दिया । बेवसाऊ = व्यवसाय, रोजगार । तन ठाढा = तनी हुई देह ।

(4) जोहन-मोहन = देखते ही मोहनेवाला । बरोठा = बैठकखाना । चीन्हा नहिं = क्या नहीं पहचाना ? जेहि = जिसका । उपने उत्पन्न हुए । लीन्हे = गोद में लिए । सीपा = सीप में रखकर; शुक्ति में ।

(5) नैहर मायका; पीहर । नैन-गगन = गगन-नयन, नेत्र- रूपी आकाश ।जनमी = जनी , पैदा की । बारी = लडकी । थुरि = तोडकर, मरोडँकर । जनम = जन्मकाल में ही । कंत बँदि = पति की कैद में । जियन चाहि = जीने की अपेक्षा । कुहुकि = कूक कर । तहि कुहुक = उसी कूक से, उसी कूक को लेकर ।

(6) सुठि = खूब । रूप-डार = चाँदी का थाल या परात । केतौ = कितना ही । हींछ =इच्छा । बैन करेई = बकवाद करती है । भूल = भूल, भूलकर भी ।

(7) उघारा = खोला । खभारू = खभार, शोक । हाथन्ह सेंति = हाथों से । हाँथ सँकेती = हाथ से बटोरकर । मुकुता लेउँ....दीठी = हाथ में मोती लेते ही हाथों की ललाई से वह लाल हो जाता है; राती = लाल । छाया लाल और काली छाया से ।

(8) कँवल = अर्थात् पद्मावती । बैरी सूर.. ..आसा = कुमुदिनी का बैरी सूर्य है और वह कुमुदिनी चंद्र की आशा में है अर्थात् उस दूती का रत्नसेन शत्रु है और वह दूती पद्मावती को प्राप्त करने की आशा में है । बिगसि रैनि....भूरू = रत्नसेन के अभावरूपी रात में विकसित या प्रसन्न होकर बातों से भुलाया चाहती है । रहसि = तू रहती है । कोवँरि = कोमल । पौनारि = मृणाल । बार = देर

(9) अँजोरा = प्रकाशवाला । माढी = मंच, मचिया । बँदि = बंदी में । एहि फूल = इसी फूल से ।

(10) कोहाँइ = रूठती है । सहुँ सामने । भँवर = पानी का भँवर; भौंरे के समान काले केश । भँवर छपान....परगटा = पानी का भँवर गया और हंस आया अर्थात् काले केश न रह गए , सफेद बाल हुए । बिरसि जो लीज = जो बिलस लीजिए , जो बिलास कर लीजिए । जौ लगि कालिंदि....परासी = जब तक कालिंदी या जमुना है विलास कर ले फिर तो गंगा में मिलकर, गंगा होकर, समुद्र में दौडकर जाना ही पडेगा, अर्थात् जब तक काले बालों का यौवनव है तब तक विलास कर ले फिर तो सफेद बालोंवाला बुढापा आवेगा और मृत्यु की ओर झपट ले जायगा । बिरासी । परासी = तू भागती है अर्थात भागेगी ।

(10) जोबन भँवर....तोरा = इस समय जोबनरूपी भौंरा (काले केश) है और फूल सा तेरा शरीर है । बिरिध = वृद्धावस्था । हाथ मरोरा = इस फूल को हाथ से मल देगा । बान = तीर वर्ण, कांति । धनुक = टेढी कमर ।

(11) आपन जैस = अपने ऐसा । खेरा = घर, बस्ती । थर = स्थल, जगह । फार =फाडे । सत्य के...फटा = यदि सत्त के बल से हृदय न फटे अर्थात् प्रीति में अंतर न पडे (पानी घटने से ताल की जमीन में दरारें पड जाती हैं) । छरै को पार = कौन छल सकता है ।

(12) राता = ललित । साम सिर छाता = अर्थात् काले; केश । थाके = थक जाता है । बग = बगलों के समान श्वेत । चल होना = चल देनेवाला है । कोंप = कोंपल, कल्ला । रँग लेहु रचि = रंग लो, भोग-विलास कर लो । काँचा कच्चा । राँचा = अनुरक्त हुआ । जाइ दुइ बाटा = दुर्गति को प्राप्त होता है । जाउ = चाहे चला जाय । भँवरा = काले केश । जो सँवरा = जिसका स्मरण किया करती हूँ । जौ दिन दिन हेरा = यदि लगातार ढूँढती रहूँगी ।

(14) कौनि रसोई = किस काम की रसोई है ? जेहि परकार....होई = जिसमे दूसरा प्रकार न हो, जो एक ही प्रकार की हो । दूसर पुरुष = दूसरे पुरुष का । बैसे = बैठे रहने से , उद्योग न करने से । आन = दूसरा ।

(15) धाई = धाय, धात्री । मसि चढावसि = मेरे ऊपर तू स्याही पोतती है । जस सीसा =जैसे सीसा नहीं दिखाई पडता है । लाइ लगाकर । कापर = कपडा । सरि = बराबरी का; नदी ।

(16) = घालि लीन्ही = डाल रखी है । मुद्रा = मुहर । उपराहीं = ऊपर । भँवाहीं = घूमते हैं । कँवल = कमल को , कमल के चारों ओर । सो कस.....नाहीं = ऐसी सफेदी कहाँ जहाँ स्याही नहीं, अर्थात् स्याही के भाव के विना सफेदी की भावना हो ही नहीं सकती ।पिंड = साकार वस्तु या शरीर जेहि = जिसमें ।

(17) भौंह = धनु फेरी = क्रोध से टेढी भौं की । सरि पूज = बराबरी को पहुँच सकता है दुःख भरा तन....केसा = शरीर में जितने रोयें या बाल नहीं उतने दुःख भरे हुए हैं । सोन नदी....गरुवा = महाभारत में शिला नाम एक ऐसी नदी का उल्लेख है जिसमें कोई हलकी चीज डाल दी जाय तो भी डूब जाती है और पत्थर हो जाती है (मेगस्थिनीज ने भी ऐसा ही लिखा है। गढवाल के कुछ सोतों के पानी में इतना रेत और चूना रहता है कि पढी हुई लकडी पर क्रमशः जमकर उसे पत्थर के रूप में कर देता है ) पाहन होइ....हरुवा = हलकी वस्तु भी हो तो उसमें पडने पर पत्थर हो जाती है । चेरि = दासियाँ । छूटीं = दौडीं । कूटन = कुटाई, प्रहार । कुटनी = कुट्टिनी, दूती । झूँक = झोंका ।