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देशद्रोही की दुत्कार / रामचंद्र शुक्ल

(1)
रे दुष्ट, पामर, पिशाच, कृतघ्न, नीच।
क्यों तू गिरा उदर से इस भूमि बीच ।।
क्यों देश ने अधम स्वागत हेतु तेरे।
आनन्द उत्सव उपाय रचे घनेरे ।।
(2)
सोया जहाँ जननि-आ ( निशंक होके।
माँगा जहाँ मधुर क्षीर अधीर होके ।।
थोड़ी शरीर सुध भी न जहाँ रही हैं।
रे स्वार्थ-अन्ध यह भूमि वही, वही हैं ।।
(3)
जो भूमि टेक कर के बल रेंगता था।
हाँ क्या उसे न तुझे से कुछ आसरा था ।।
जो धूल डाल सिर ऊपर मोद माना।
क्यों आज तू बन रहा उससे बिगाना ।।
(4)
तू पेट पाल, मन मंगल मानता हैं।
सेवा समस्त सुख की जड़ जानता हैं ।।
खोटी, खरी खटकती न तुझे वहीं की।
पाता जहाँ महक मोदक औ मही की ।।
 
(5)
तेरे समक्ष पर अन्न विहीन दीन।
चिन्ता-विलीन अति क्षीण महा मलीन।।
जो ये अनेक प्रियबन्धु तुझे दिखाते।
लज्जा दया न कुछ भी तुझको सिखाते? ।।
(6)
रे स्वार्थ-अन्ध, मतिमंद कुमार्गगामी!
क्यों देश से विमुख हो सजता सलामी?
कर्तव्य शून्य हल्के कर को उठाता।
दुर्भाग्य-भार-हत भाल भले झुकाता ।।
(7)
किसके सुअन्न कण ने इस कूर काया।
को पाल पोस पग के बल हैं उठाया? ।।
किसका सुधा सरित शीतल स्वच्छ नीर।
हैं सींचता रुधिर तो चलता शरीर? ।।
(8)
किसका प्रसूनरज लेकर मंद वायु।
देती प्रतिक्षण पसार नवीन आयु? ।।
किसका अभंग कल कोकिल कंठ गान।
होता प्रभात प्रति तू सुन सावधान? ।।
(9)
स्वातंत्रय की विमल ज्योति जगी जहाँ हैं।
आनन्द की अतुल राशि लगी जहाँ हैं ।।
जा देख! स्वत्व पर लोग जमे जहाँ हैं।
तेरे समान नर क्या करते वहाँ हैं ।।
 
(10)
सर्वस्व छोड़ तन के सुख भूल सारे।
जो हैं स्वदेश-हित का व्रत चित्ता धारे ।।
न स्वप्न में कनक हैं जिनको लुभाता।
मानपमान पथ से न जिन्हें डिगाता ।।
(11)
तेरे यथार्थ हित हेतु अनेक बार।
जो हैं सदैव करते रहते पुकार ।।
ऐसे सुपूज्य जन से रख द्रोह भाव।
तू नित्य चक्र रच के चलता कुदाव ।।
(12)
जा दूर हो अधम सन्मुख से हमारे।
हैं पाप पुंज तुव पूरित अंग सारे ।।
जो देश से न हट तो हृद देश से ही।
देते निकाल हम आज तुझे भले ही ।।
 
 ('आनंद कादंबिनी, ज्येष्ठ-आषाढ़, 1964 वि.