दिखे अगर कभी मकान में झरन,
सयत्न मूँदते उसे प्रवीण जन,
निचिंत बैठना बड़ा गँवारपन,
कि जब समस्त देश में दरार हो।
रहे न साथ एक साथ जब रहे,
अलग, विरुद्ध पंथ आज तो गहे,
यही मिलाप है कि राम मुँह कहे,
मगर बग़ल छिपी हुई कटार हो।
सुदूर शत्रु सेन साजने लगा,
पड़ोस-का फ़िराक में कि दे दग़ा,
कहीं अचेत ही न जाय तू ठगा,
समय रहे स्वदेश होशियार हो।