देश के हित में ऐसे नेता काल रहे हैं।
सारे तथ्यों पर जो चादर डाल रहे हैं।
संशय में अब नहीं है कोई अदना भी,
कथनी-करनी में अंतर विकराल रहे हैं।
दीप जलाते ही हो जाती तेज हवाएँ,
जैसे जलने वाले मनसा पाल रहे हैं।
कैसे मछली बच पाएगी इंसा से,
जब जल की धारा में अनगिन जाल रहे हैं।
जिन पर किया भरोसा, मिलता साथ कहाँ,
लगता जैसे लोगों में जंजाल रहे हैं।
भटक रहा मन वनवासी जैसा ‘प्रभात’
ज़ुबान पर ताले और पावों में छाल रहे हैं।