मिथिला, समस्त देश विद्या परचार वेश
अद्य पर्यन्त विद्यमान अछि गाम गाम।
तदपि कतोक दोष दुसह पड़ैत आछि
जाहिसौं समस्त देश निन्दनीय ठाम ठाम।
तकर सुधार दिशि जौँ न दृष्टिपात करी
होयत असह्य कष्ट सबहुकाँ धामधाम।
मैथिल भै मिथिलाक गौरव विनाश देखि
चुप्प रही, केहन कुकर्म थीक? राम! राम!
अरुचि सुकर्म, धर्मपथ विपरीत चालि,
तात भ्रातमे विरोध नित्यहु बढ़ल जाय,
श्रवण सुनैन श्रुतिवैन सुख देनिहार,
विसुन प्रपंची कथा सूनब सुचित लाय।
दोष निज छपओ, प्रपंच कै परक दोष
करिअ बखान दस पंच बिच जाय जाय
मैथिल भै मिथिला, स्वदेशक अखण्ड यज्ञ
अपना कुकर्महि सौँ नाश करी हाय हाय!
देखू निज भेष भाव भाषा कैँ विचार करू
बूझब अवश्य दिन दिन सभ दूरि जाय,
जानी नहि भेद, कटुवानी कहि हास्य करी
बुद्धिक विधान निज नाम जग दी जनाय।
पूर्वज जतेक यश-गौरव अरजि देल
भेल सब नाश ई अवश्य कै बुझल जाय
आबहु विचारु देश भेष कैँ सम्हारू भाव-
भाषा कैँ प्रचारू, जन्मभूमि ध्यान चित्त लाय।