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देहरी / अज्ञेय

मेरी आँखों ने मुझे सहलाया है
जैसे शिशु अँगुलियाँ
हिलगे शशे को कौतुक से
मेरे हाथ तेरे हाथ खेले हैं
जैसे पर्वती सोतों के
आलोक के बुलबुलों-बसे पानी से
रोमांचित होते मेरे ओठों ने
तुझे चूमा है सिहरी श्रद्धा से
तेरी देह देहरी है जिस के पार
एक समाधिस्थ सन्नाटा है
ओ मेरे देवदारु अशोक
मेरे ओठ मेरे हाथ
मेरी आँखें
और तू...