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देहाती का चित्र / नवीन सागर

अपनी माँ को पीठ पर लादे देहाती
अस्‍पताल में
कुछ कहता भटक रहा है
माँ जबकि उसकी कब की
मर चुकी है।

वह तो कब से
कारीडॉर में चल रहा है
कब से
डॉक्‍टर के दरवाज़े पर खड़ा है।

पीठ पर लदी माँ से बेखबर
सिर्फ़ इतना चाहता है
कोई उसकी बात सुन ले।

वह थक गया है
मीलों से ऐसा ही चला आ रहा है
मीलों ऐसे ही जाएगा
और फिर आएगा।

माँ को पीठ पर लादे देहाती का चित्र
अख़बार में छपता है
ज़िंदा माँ को जब वोट के लिए लादे
कैमरे के आगे मुस्‍कराता है।
अभी तो उसे नहीं पता कि उसकी माँ
मर चुकी है
माँ को भी नहीं पता

उसकी आत्‍मा दुख और यातना की डाइनों से घिरी
अस्‍पताल के गटर में
एक बूँद गंगा जल के लिए मुँह खोले पड़ी है।

माँ को पीठ पर लादे देहाती का चित्र
एक राष्‍ट्रीय चित्र होता
मगर अस्‍पताल के कारीडॉर में टँगा-टँगा
इतना दीन हो गया है कि
डॉक्‍टर की मुस्‍कान से मेल नहीं खाता।
जब सब चले जाते हैं
अस्‍पताल में भयावनी रोशनियाँ
और कराहें रह जाती हैं
देहाती का चित्र
अकेला इंतज़ार करता है।