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देह / पद्मजा शर्मा


देह की धीमी आँच-आवाज़ सुनो
कितना बोलती है, मन के बराबर तौलती है

उसके मौन में भी कितने निमंत्रण कितनी स्वीकृतियाँ
खुशियाँ-उदासियाँ-पाबंदियाँ
आदि परम्पराएँ-सभ्यता-संस्कृतियाँ

सब पिघलते रहते हैं
साँस लेते रहते हैं चुपचाप
होकर एकाकार बदलते रहते हैं रूपाकार
बस हो एक देह की पुकार

सिवाय देह के ऐसा कहीं नहीं होता
नित नूतन अनछूई-सी ही रहना
समन्दरों में न आसमानों में

कि सब कुछ को बदलकर
ख़ुद कभी नहीं बदलना

सच तो यह है कि जहाँ देह का नकार है
बस यहीं स्वीकार है
ज़मीन से ज़्यादा समंदर में
और समन्दरों से अधिक देह में फटते हैं ज्वालामुखी
उन विस्फोटों के असर दूर तक पड़ते हैं
और निशान

भाव-विचार-शब्द-अर्थ
व्यक्ति-परिवार-समाज-देश-राष्ट्र
सृष्टि के कण-कण में प्रतिबिंबित होते
उसमें से निकलते, उसी में समा जाते हैं

मन मारूत उड़ता है असीम तक
ईश्वर अध्यात्म परलोक की करता है निरी बातें

पर पाने विश्राम और परमानन्द
देह की चौखट पर ही आता है
देह को लांघकर कोई बिरला ही
तसल्ली की मंज़िल पाता है

जब देह प्रकाश फैलता है तो
चौंधिया जाती हैं आँखें
जगमगा उठता है देह-मंदिर का
हर सुप्त अँधेरा कोना

आँखें खोल
बोलने लग जाती हैं सारी मूर्तियाँ
आशीर्वाद देने लगते हैं सारे भगवान
तीनों लोक से फूलों की होती है बरसात
यह क्षण करोड़ों में किसी एक के ही लगता है हाथ
जब सारी प्रकृति उस पल निभाती हो साथ

मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरूद्वारे
ऋषि-मुनि-देवी-देवता-चराचर सारे
देह के आगे लाचार बेचारे
सब हारे।