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देह का दीप / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

देह का दीप भर प्राण के स्नेह से
मैं तुम्हरे लिए ही जलाता रहा।

आँधियाँ भी बहीं, किन्तु तिल भर नहीं
मंद लौ अर्चना की कभी हो सकी;
पास में एक भी था न साधन मगर
बंद गति साधना की कभी हो सकी।

शूल की सेज पर बैठ मन का सुमन
मैं तुम्हरे लिये ही खिलाता रहा॥1॥

साँस की बातियाँ कुछ मिलीं जो मुझे
मैं उन्हीं से दिया यह सँजोता रहा;
प्रात बीते कई, रात बीतीं कई
जागता मैं रहा, विश्व सोता रहा।

छेड़ कर स्वर मधुर शून्य की बीन पर
मैं तुम्हारे लिए गुनगुनाता रहा॥2॥

जन्म के औ’ मरण के तटों बीच यह
साँस की जो कि सरिता बही जा रही;
पूछ मैंने लिया है सभी से यहाँ
जिन्दगी है यही बस कही जा रही।

मैं इसी से बहा नाव मझधार में,
प्रिय, तुम्हारे लिए ही चलाता रहा॥3॥

मोल कब हो सका आँसुओं का यहाँ,
टूट करगिर पड़े, मिल गये धूल में;
इसलिए अश्रु पीता रहा मैं स्वयं
मुसकराता रहा ज्यों सुमन शूल में।

मुक उन आँसुओं की सिसकती व्यथा,
मैं सुनाने तुम्हें गीत गाता रहा॥4॥

जनवरी, 1955