देह की देहरी पर
पटकता है सर
उद्विग्न मस्तिष्क
आहत दर्प
जा छुपता है
प्रशस्ति की कन्दराओं में
तेक नहीं छोड़ती हठ
तर्क घुटने नहीं टेकता
आत्मा के वितर्क पर
सतर्ष हर हार को
संघर्ष की भाषा कहता है
निर्वसन करता हुआ
शिराओं से मुख तक
रक्त के सारे माध्यम.