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दोपहर मई / चन्द्रकान्त देवताले


तारकोल रिसने के बाद अब
लपलपा रहा है
बंद खिड़की-दरवाज़े और इक्के-दुक्के लोग
सड़क पर संभलकर चलते हुए
समुद्र दूर बहुत कँदराया हुआ
पेड़ अग्नि-स्नान में गुमसुम
और छायाएँ इतनी उदास जैसे
हथियार पटक दिए हों हवा ने
तुम उसी बिस्तर पर लेटी होगी
आँखें मूँदे वैसी ही पंखा अँधेरे में
कमरे के अंदर घूम रहा होगा
अमलतास पीला हँसते हुए ऐसे
जैसे वह जानता है सब-कुछ
गुलाबों के बारे में पूछ रहा मुझसे

जलती हुई दोपहर के बीच भी
मेरे पास कितना है याद करने को
सोच रहा मैं
स्मृतियाँ सोख लेती हैं धूप गर्मी के कत्थई पठार
सफ़ेद समय के आकाश को बना देती है
चौकड़ी भरता हुआ बादामी हिरण
बिन ताज्जुब रहस्य हो जाता है नीला

बातों का जंगल

और मैं मई को पहचान रहा हूँ
फ़ौवारों के भीतर बचपन के दोस्त की तरह
जब कि एक बच्ची हरे परदे को खिसका
थोड़ा-सा बाहर देख रही है दुश्मन की तरह
मैं हँस रहा हूँ उस सब की गंध के बीच
जो इस बाहर की हक़ीक़त को ध्वस्त कर रही है
और उमचा रही है पहाड़ की वह दोपहर
मेरे भीतर नदी में
जब सारी चीजें, झरने तक
स्तब्ध हो गये थे एक क्षण के लिए

सिर्फ़ एक वह शब्द
चिड़िया के बच्चे की तरह फुदक रहा था
तुमसे मुझ पर धुंध में