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दोसरसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

रोलाछन्द-
1.
त्रिगुणमयी छथि प्रकृति जनिक ई त्रिविध सृष्ट अछि
सकल त्रिगुणमय जानु जगत जे विविध दृष्ट अछि।
स्थान तीनि पुनि गगन-भूमि-जल अछि संसारक
जलचर-थलचर-खचर जीव पुनि तीनि प्रकारक॥

2.
भूमिक तीनि विभाग ततय त्रिभुवन कहबै अछि
‘स्वर्ग-भुव-भूलोक’ नाम श्रुतिशास्त्र गबै अछि।
हिमगिरि-उत्तर स्वर्ग, भ्ुवर दच्छिन कहबै अछि
तहि सैं दच्छिन सिन्धुपार भूलोक पबै अछि॥

3.
ऊर्ध्व-मध्य ओ अधो लोक ई क्रमहि कहाबै
उत्तम-मध्यम-अधम-कर्मवश जन ई पाबै।
ऊर्ध्वलोक में देव, मध्य में निवसथि मानव
अधोलोक में अधम-प्रकृति कहबै अछि दानव॥

4.
मानव लोकक मुकुट देश अछि मिथिला नामक।
मृदुल मनोहर-विमल भूमिजल अछि जहि ठामक॥
अछि साधन अति सुलभ धर्म-अर्थक ओ कामक।
जतय आबि सब पुरल मनोरथ रघुपति रामक॥

5.
उत्तर स्वर्गदुआरि जनिक दच्छिन दिसि सुरधुनि।
पूब बंग-कौशिकी, गण्डकी पच्छिम दिसि पुनि॥
माया दोसर नाम जनिक श्रुति शास्त्र गबै अछि।
जतय जनमि जन अनायास अपवर्ग पबै अछि॥

6.
शवल-धवल गृह विविध, कतहु तृण रचित कुटी अछि।
स्वर्ण-रजतमय पात्र कतहु पुनि पणपुटी अछि॥
क्यौ बल्कलकटि, जटी कतहु क्यौ चित्रपटी अछि।
सद् विचार में एक अपरसौं क्यौ न घटी अछि॥

7.
सुमन वाटिका ललित फलित तरु बाग अछि।
लसितसलिल सर सरित-कूप-वापी-तड़ाग अछि॥
सदा शस्त सब सस्य-कन्द-फल-मूल-साग अछि।
नीति निपुण-नृप सहित जतय जन बीतराग अछि॥

8.
जतय विदितयश याज्ञवल्क्य योगीश्वर ज्ञानी-
आदि-सभासद सौं सदैव शोभित नृपधानी।
जे सुरपुर सौं बढ़ल चढ़ल सुषमा-सुख-खानी
वरनि सकै अछि नहिं अशेष छवि शेषक वानी॥

9.
छल त्रेता युग यदपि एक पद पापक बेला।
नहिं तथापि छल जतय अधर्मक चर्च अधेला॥
जनक जनक-सन ततय जनक-नामक नृप भेला।
विश्व भरिक विद्वान छला बनि जनिकर चेला॥

10.
कनक-अचल-सम धीर वीरवर परशुराम-सम।
सिन्धु-सदृश गम्भीर कान्तछवि कोटि काम-सम॥
नीति शिवक समान वृहस्पति-सनक बोध में॥

11.
विधि-समान वेदज्ञ दान्त ओ शान्त विष्णु-सम।
मानव नृपगणमध्य अमरगणमध्य जिष्णु-सम॥
तेजस्वी रवि-सदृश, मनोहर पूर्णचान-सम।
क्षमाशील भूसदृश बली जे जगत्प्रान-सम॥

12.
दण्ड भेद विनु अनायास निज राज चलाबथि।
प्रथम (साम) द्वितीय (दान) उपाय सेबि सब काज चलाबथि॥
कपटहीन प्रिय मधुर वचन से नहिं विनु दानक
दान अमान प्रशस्त से न पुनि विनु सन्मानक॥

13.
सन्मानो सबहिक परेखि गुणगन-अनुसारक
अनुपम छला अजातशत्रु विश्वक भलकारक।
सकल नृपक कल्याण-मार्ग-उपदेश-प्रचारक
धर्मक-रक्षक विदित सदैव अधर्म-निवारक॥

14.
कल्पलता झुकि जाथि जनिक सद् गुन सुनि दानक
होथि मुदित मन सुमन लोढ़ि बाला गीर्वानक।
अर्थ-काम-युत पूर्ण धर्म जनु मनुज-रूप बनि
ऐला मुक्तिक ताक-हेतु मिथिलाक भूप बनि॥

15.
देह अछैतहुँ जे विदेह-पद जग में पौलनि
मुक्तकण्ठ भै जनिक सुयश सुर नर मुनि गौलनि।
नहिं ककरहु सौं द्वेष कतहु नहिं कतहु राग छल
सम-सुख-दुख-अपमान-मान ओ सुधा-साग छल॥

16.
नहिं छल-ईर्ष्या क्रोध लोभ छल जनिक राज में
अनायास भय जाय सफलता सकल-काज में।
समय समय पर सविधि यज्ञ जहि सौं सुवृष्टि छल
पाबि अन्न सम्पन्न प्रजा में परम दृष्टि छल॥

17.
जन जन में भरि देश जनिक पसरल प्रभाव छल
ने मिथ्या व्यवहार कतहु नहिं वैरिभाव छल।
बकड़ी-बाघ बिलाड़ि-मूस मिलि संग चलै छल
साप मजूरक पीठ पाँखि पर चढ़ि ससरै छल॥

18.
ताताज्ञावश पुत्र सकल जननिक वश कन्या
सासुक आज्ञानिरत-नारि छलि पतिवश धन्या।
नौकर मित्र-समान, मित्र सोदर-वत मानै
अपन प्रान सौं अधिक सहोदर कैं सब जानै॥

19.
घर घर अतिथिक हेतु पृथक राखल जल आसन
चाउर चूड़ा दही, दालि तरकारी वासन।
पथ पथपर पुनि पथिक हेतु प्रतिपुर पनिसाला
ने क्यौ पहरादार कतहु लागल नहिं ताला॥

20.
फूट बनल नहि कतहु कचहरी छल सरकारक
ने छल ककरहु काज कतहु ओकिल मुखतारक।
पढ़ि पढ़ि आयुर्वेद जतय सब ज्ञान बढ़ाबथि
औषध दिव्य बनाया सकल परदेश पठाबथि॥

21.
गाम गाम चटिसार विशद चौपाड़ि अनेको
जे नहिं सुरगुरु-पाठ-भवन सौं न्यून कनेको।
जतय एक में बालगन क हो बुद्धि परीक्षा
दोसर में पुनि बुद्धिमान-जन पाबथि शिक्षा॥

22.
जे बटु हो चटिसार पास से द्विजपद पाबय
गुरु-समीप चौपाड़ि वेद पढ़बालय आबय।
गुनवश ब्राह्मण, नृपति वैश्य-पदवी पुनि पाबय
अनुत्तीर्ण चटिसार परक शिशु शूद्र कहाबय॥

23.
ब्राह्मण शिक्षा-कर्म-निरत क्षत्रिय पालन में
र्कृिष वाणिज्य सम्हारि वैश्यजन जनलालन में।
द्विज-सेवारत शूद्र नारिजन भवन-काज में
जतय अचल छल प्रेम परस्पर सब समाज में॥


24.
नहिं छल व्यत्यय जन्म-मरण कोनहु प्रानी में
छल सार्थकता भरल जतय सबहिक बानी में।
ब्रह्मचर्य व्रत पालि करय गार्हस्थ्यक सेवन
नहिं छल वानप्रस्थ तथा सन्यास-प्रयोजन॥

25.
अपन अपन कर्तव्य कर्म गहि योग करै छल
पूर्ण आयु सब जीवि सकल सुख भोग करै छल।
करितहुँ सब गृहकाज कर्मफल सैं विरक्त भै
छल पबैत अपवर्ग ब्रह्मचिन्तन-प्रसक्त भै॥

26.
जनिक धर्मपत्नीक नीक छल नाम सुनयना
सतीसिरोमणि नारि धर्म-गुन-शीलक अयना।
श्रद्धा-भक्ति-सुनीति-मुक्ति ओ दया-ऋद्धि सिधि
सब एकत्र मिलाय सृजल जनु नारिमूर्त्ति विधि॥

27.
उठि भोरहिँ कय प्रातकृत्य घर-काज सम्हारथि
दासीगनक अछैत स्वयं पतिचरण पखारथि।
पति कैं निज सर्वस्व, प्रान ओ ईश्वर जानथि
पतिपद सौं नहिं भिन्न तीर्थ देवादिक मानथि॥

28.
दासी बेटी-पुतहु एक सम सबकैं देखथि
गुनक प्रशंसा करथि सबक, नहि अगुन परेखथि।
बितुथ होए वरु काज तदपि नहिं टहल अढ़ाबथि
दया प्रेम ओ सत्य अहिंसा पाठ पढ़ाबथि॥

29.

जनक नृपक सौभाग्य सुयश जन गाबि सकल के
समता मिथिला पुरक देश पर पाबि सकत के?।
नित दिन नृपमें प्रजा प्रजामें नृप पुनि रीतल
सम-सुख सकल करैत काल बहुतो ता बीतल॥

30.
गतिवश त्रेता युगक क्रमहि चारिम पद आएल।
तेसर द्वापर युगक समय आगम लगिचायल॥
वर्षागम भेकक समान खलदल बहरायल।
पापक बढ़ल प्रभाव सुजनमण्डल घबड़ायल॥

31.
छल तौखन मिथिला प्रदेश निर्भय अति पावन
सुख-सम्पति-सम्पन्न सकल सुरमुनि-मन-भावन।
ताहि समय अवतीर्ण भेल लंकापति रावन
भेल विप्रकुल जनमि असुर, सुर-मनुजभयावन॥

32.
साधि नियम, कय सविधि सविधि शम्भुक आराधन
पाबि अजर-अमरत्व इष्टसिद्धिक सब साधन।
जानि सकल श्रुति शास्त्र तदपि लहि कालकुसंगति
सत्पथ सौं सुख मोड़ि छोड़ि द्विज जातिक रंगति॥

33.
स्वार्थलीन भै अन्ध दर्पवश उत्पथ धैलक
जीति भुवन सुर मनुज-असुर सब कैं वश कैलक।
छल प्रपंचपटु, विज्ञ परम छलमायाजालक
लायल सहसा छीनि सकल सम्पति दिसिपालक॥

34.
सकल नकलकृति-कला-कुशल मायावी-नायक
ससुर असुर मयनाम जकर छल सतत सहायक।
से सुरशिल्पी-संग रंगमय विविध यतन सौं
रचलक लंका नगर सगर मणि हेम रतन सौं॥

35.
अलका अमरावती आदि सुर-यक्ष नगर सौं
आनि सुशोभाखानि छानि विश्वक घर घर सौं।
सब एकत्र मिलाय बनौलक अनुपम लंका
देखि दूर सौं होए द्वितीय सुमेरुक शंका॥

36.
गगन-चुम्बि मणि-खचित स्वर्णमय सौध सुसाजित
दिव्य-नारि - गन्धर्व - अप्सरा - वर्ग - विराजित।
बाजय कतहु मृदंग बीन गाबय क्यौ सोहर
शत योजन आयाम तथा विस्तार मनोहर॥

37.
नगरक प्रांगन भूमि उपर पाटल छल हीरा
एक रूप अति रम्य दृश्य भाठा ओ सीरा।
समतल सबजी दूबि कतहु हरिअर चतरल छल
ललित लती प्राकार उपर लतरल कतरल छल॥

38.
सम दिन राति स्वरूप सकल ऋतुफल समान छल
उषम समय में शीत शिशिरमे ताप भान छल।
थल में जलभ्रम होए कतहु जल में थल शंका
तजय अनल बुझि हेम बनल मायामय लंका॥

39.

बनल दिव्य उद्यान, रम्य शतगुन नन्दन सौं
लाबि फूल-फल वृक्ष विविध विश्वक वन वन सौं।
पारिजात सन्तान कल्पपादप हरिचन्दन
मन्दारादिक सुतरु सुरासुर-मानसनन्दन॥

40.
सरस सेव सहतूति नास-पाती समतोला
अनानास अंगूर-मुसब्बी पैघ मझोला।
किसमिस दाख अनार नारिअर विविध-सुपारी
पिस्ता ओ अखरोट मनक्का वृक्षक धारी॥

41.
वर बदाम अंजीर अराँची मरिच लवंगक
ताल तमाल-खजूर आदि तरु रंग विरंगक।
जामुन-आम-लताम सरीफा केरा कटहर
लीची खीरा बेल सतालू डुम्मरि बरहर॥

42.
अमली अमरा कत्थ करौना कमरख नेबो
फलित देखि ललचाथि सदा इन्द्रादिक देवो।
बनल चतुष्पथ रम्य परम सुखगम्य बाट छल
थल थल कुरसी बैंच मेज ओ पलङ खाट छल॥

43.
जन विश्रामक हेतु विविध मण्डप अनूप छल
पल्वल वापी विविध स्वयंवह सुजल कूप छल।
स्फटिक शिला तल घटित-घाट युत भव्य सरोवर
छल मणिमय सोपान ललित मानस सौं दोबर॥

44.
निर्मल सलिल सलील हंस कलहंस सुशोभित
क्रौंच कोक बक सारसादि खग जतय विलोभित।
वर इन्दीवर कुमुद कोकनद पुण्डरीक छवि।
जगमे गणपति गिरा विना कहि सकत कोन कवि!॥

45.
झर झर झरइत श्रवण सुखद निर्झरगत जलरव
कूँजय कोकिल कीर तीर तरुवर पर कलरव।
सुमन वाटिका पृथक केतकी चम्पा बेली
रजनी-गन्धा सिङरहार मल्लिका चमेली॥

46.
लती मालती ललित बकुल जूही अरहूलक
गेना तीरा आदि गुल्म गुच्छक छवि फूलक।
गूँजित-अलिगन लसित विविध पक्षीगन कूजित
छल रावण-प्रिय हेतु सकल ऋतुपति सौं पूजित॥

47.
शोभा विश्वक सकल आबि जनु संग भेल छल
अलका-अमरावती आदि पुर भंग भेल छल।
सम्पति लंकापतिक देखि सब दंग भेल छल
भयवश-सुरनरमुनि-समाज सब तंग भेल छल॥

48.
अग्र गनल सुर अनल छलाह बनल भयसीया
यम हँटला अधिकार छोड़ि बनि जन अनठीया।
पवन बहारथि भवन वरुण निर्मल जल सीचथि
इन्द्र नहाबथि आबि देवगण धोती खीचथि॥

49.
सम दिन राति बनाय सूर्य नित चलथि गगन में
लेसथि साँझहि दीप चन्द्रमा भवन-भवन में।
भयवश भय वश-वर्ति कुबेर समर्पल सम्पति
करथि सतत रखबारि भवन बाहर हरदम्पति॥

50.
शेष हरिक आश्रय प्रधान भै सिन्धु समैला
सहसा दय वर-अभय दान ब्रह्मो भसिऐल।
खलक उपद्रव अनल-ताप त्रिभुवन छल आँचल
केवल जनकक पुण्य पाबि तिरहुत छल बाँचल॥

51.
ई विध देशक कोन-कोन लंकेशक करनी
देखि दुखी मुनि मनुज देव व्याकुल भै धरनी।
मिलि सुरगन गोरूप धारि लय संग विधाता
गेली निजपति-विष्णु सरन बुझि विश्वक त्राता॥

52.
नहिं सतीक थिक काज पतिक प्रति विपति सुनावै
लगली सविनय हुनक गुनक गीतावलि गाबै।
-”नाथ! देवदेवेश! मनुज-सुर-मुनिजन पालक
दीनबन्धु! जगदीश! भक्तवत्सल! खलघालक!॥

53.
नूतन जलधर-श्याम! श्वेत-सरसिज-दललोचन!
पीत तरित दुति बसन सहित! हित जनदुखमोचन!।
सदा सुदर्शन-गदा-शंख-सरसीरुह-धारी
त्रिभुवनपति! सर्वज्ञ! सन्तजन-संकट-हारी॥

54.
जग में धर्मक हानि, वृद्धि पाप हो जहिया।
लै अपने अवतार धर्म कैं राखी तहिया॥
कनककशिपु, कनकाक्ष दैत्य, बनि शम्भुक सेवक।
छल पहिनहु जे भेल महारिपु नर-मुनि-देवक॥

55.
अहाँ तखन नरसिंह आदि तनु अद्भुत धैलहुँ
खल कैं स्वर्ग पठाय त्राण संसारक कैलहुँ।
से स्वर्गक सुखभोगि फेरि आयल बनि रावन
अछि तहिना पुनि भेल सकल सुर मनुज भयावन॥

56.
मुइनहुँ सती समान प्रकृति नहि संग तजै अछि
जरनहुँ जहिना हेम अपन नहिं रंग तजै अछि।
पौनहु दोसर देह पहिलुके सब स्वभाव अछि
संकट सिन्धुक बीच पड़ल सुर मुनिक नाव अछि॥

57.
छीनि सभक अधिकार बनल खल त्रिभुवन-स्वामी
की कहि कथा सुनाउ! अहाँ छी अन्तरयामी।
छोड़ि जनकपुर, सकलभुवन व्याकुल अछि प्रानी
करी शीघ्र से आब उचित अपने जे जानी॥”

58.
ई विधि वसुधा सहित देवगन कयल आरती
सुकृत लगन, मुद मगन, भेल ता गगन भारती।
किछु दिन धरि धरु धरनि! धैर्य, सुरवृन्द! धीर रहु
खलदल थिक तृण-अनल, अहाँ सब बनल नीर रहु॥

59.
जे धुधुआइछ से समूल पुनि अचिर सठै अछि
लबि चलैछ से सदा अमर बनि विजय पबै अछि।
रावन-कृत उत्पात-बात सब जानि रहल छी
छी सम्प्रति हम बिवश नियम निज मानि रहल छी॥

60.
नहिं दशमुख कैं जानु अहाँ निशिचर साधारण
एहिमें मानु विशेषरूप शंकर छथि कारण।
अछि समस्त सुरकैं कठोर तपसौं वश कयने
कय शंकरकैं तुष्ट रहैछ हृदयमें धयने॥

61.
जन अजेय ओ अमर बनै अछि शम्भु भक्ति सौं
नहिं ओ जीतल जा सकैत अछि अन्य शक्ति सौं।
जावत रावण पर प्रसन्न रहता पचशानन
नहिं तावत भै सकब विमुख हम वा चतुरानन॥

62.
नहिं क्यौ जनक समान जगत में जन विरक्त अछि
नहिं रावण सन आन कतहु क्यौ शम्भुभक्त अछि।
भै अनन्यमन वीर साहसी जाय शरण में
निज नव मस्तक काटि चढ़ौलक शम्भुचरण में॥

63.
लागल काटय दशम गहल ता शंकर करकैं
बुझलक गड़बड़ जकाँ अचानक जे हरवर कैं।
कहल शम्भु-”वर माङ भाङ ओ बेलपात तजि
दोसर पुनि आकल्प अपन अमरत्व बात तजि॥”

64.
मङलक रावण-”होथु हमर वश दशो दिशापति
जलचर-थलचर-खचर-असुर सुर सूर्य निशापति।
आज्ञा त्रिभुवन मध्य हमर नहिं टारि सकै क्यौ
नर वानर सौं भिन्न जन्तु नहिं मारि सकै क्यौ॥

65.
निज कन्या प्रति हो कदापि यदि रति-अभिलाषा
अपने ओ अपनेक मित्र प्रति हो कटु भाषा।
तौं सरणागत-बन्धु! समरमें हमर मरण हो
मुइनहु पर परमेश! शरण अपनेक चरण हो॥”

66.
एवमस्तु कहि शम्भु ततए अन्तरहित भेला
लागल रावण करय जगत में महा झमेला!।
देखि तकर करनी पछाति पछतावथि शंकर
दय कुपात्र कैं दान होए परिणाम भयंकर॥

67.
सब अटपट अछि काज हुनक, के रोकि सकै अछि?
भङतराह छथि बेस डरैं के टोकि सकै अछि?।
क्यौ चाउर चढ़बैछ चारि बस तृप्त तही सौं
तकर भवन भरि देथि रतन धन दूध दही सौं॥

68.
एक चुरु जल ढारि कने वम् वम् हर जपने
दै छथि त्रिभुवन राज, भीख माङथि पुनि अपने।
छथि स्वतन्त्र स्वेच्छानुसार विश्वक परिचालक
महादेव ओ थिका, हुनक हम आज्ञापालक॥

69.
नहिं विरुद्ध जग हुनक कदाचित् भै सकैछ क्यौ
उल्लंघन आज्ञाक हुनक नहिं कै सकैछ क्यौ।
नहिं तावत् वश भै सकैछ रजनीचरनायक
नहिं यावत हयताह हमर श्रीशम्भु सहायक॥

70.
तैं हम पहिनहि जाय विनत भै शम्भु शरण में
अक्षत बेलक पात धुथूर चढ़ाय चरण में।
कहि सुरनर-दुख कथा तुष्ट हुनका पुनि कैलहुँ
रावनवधक प्रशस्त मार्ग निश्चित कय ऐलहुँ॥

षट्पद-
71.
लेब मनुज अवतार आबि हम दशरथ घर में
लक्ष्मी हैती प्रगट भूमि सौं जनकनगर में।
हमर सहायक वृन्द भालु वानर बनि आवत
तखन लण्ठ दशकण्ठ अपन कर्मक फल पावत।
सुखी अहाँ सब हयब अति हयत स्वस्थ संसार पुनि
पाप-विलय पुण्यक उदय सब सुचारु व्यवहार पुनि॥

72.
गगनगिरा सुनि देवगन मानि पूर्ण मनकाम।
उठि सधीर सब धीर भै गेला निजनिज धाम॥

अम्बा-चरित प्रसंग में जनकसुकृत सौं व्याप्त।
भेल दशाशन-कृति कथन दोसर सर्ग समाप्त॥