कस्तूरी - मृग गंध-सुगंधित
सुन्दर शिखर हिमालय के,
घनॅ नमेरू के झाँखी में
अजगुत शिला शिवालय के।
गंगाजल सें रोज पटी केॅ
देवदारु लहराय छै,
जलकण लेॅ केॅ हवा शिखर तक
मंद-मंद डहराय छै।
कृत्तिवास छै वही शिखर पर
जे कैलाश कहाबै छै,
पैहलॅ दिना बसू सब आबी
हुनखै अर्ध्य चढ़ाबै छै।
जिनकॅ डमरू के डिम-डिम सें
चौदह सूत्र-निनाद भेलै,
प्रकृति-नटी के महामंचपर
जे पैहलॅ मटराज भेलै
जिनकॅ जटाजूट सें अविरल
गंगाँ धार बहाय छै,
जे दिक-अंबर-धारी शंकर
महादेव कहलाय छै।
रुद्र पिनाकी त्र्यंवक शंभो
हर त्रिपुरारी जोगीश्वर,
विषपायी, बम नीलकंठ जे
आशुतोष पशुपति औढर!
जिनकॅ महिमा-गरिमा पाबी
गरबैतॅ हिमवान छै,
जिनकॅ कृपा कोर पर टिकलॅ
धरती के कल्याण छै।
मृगछाला पर आसन मारी
बैठलॅ देव पुरारी छै,
परमानन्द मोद सें भरली
बामें शैल-कुमारी छै।
द्वारी पर खाढ़ॅ नन्दी छै
ताकै दूर हिकारत सें
सौंसे हिम के देश अधिक नै
लागै ओकरा आरत सें।
पोनॅ रगड़ै देबदारु सें
कहीं मत्त गजराज खड़ा,
दाँत गड़ैने शिलाजीत पर
भालॅ करै कहीं झगड़ा।
मानसरॅ में हंसें हंसिन केॅ
पानी में गोंतै छै
कमल सुनहरा हिली-हिली
दल-पर-दल रून चपौतै छै।
जेना सज्जन ने राखै छै
सद्गुण सभे सहेजी केॅ
हुट्ठी के उतपात-घड़ी में
मौन रही, सब तेजी केॅ।
फोल तनिक छै शिखर-जोड़
रावण ने कभी हिलैने छै,
अलगाय केॅ लंका लेगै के
मंसूआ अजमैने छै।
नीचें ऐलै क्रौंच शिखर पर
सुन्दर स्वरलो’ के जोड़ा
उपरॅ सें जेना उतरै छै
शैलानी खोंढ़ा-खोंढ़ा!
फाँक बनैलॅ क्रौंच शिखर में
परशुराम के पानी के,
साखी छै वै तपी वीर के
अजगुत अमर कहानी के।
हंसॅ के जेरॅ पैसै छै
निर्मल मानसरोवर में,
यही फाँक सें, बौंकडॅ पाँती
सोझॅ करी बरोबर में।
यै फाँकॅ सें हवाँ बजाबै
सुखलॅ बाँसॅ के बंशी,
राग मिलाबै युवती कन्याँ
मधुकंठी किन्नर - अंशी।
माय अदिति के नेह-धार सें
स्वरलो, जना घेरैलॅ छै,
उषा - गाय के जेरॅ सुस्ता
बै लेॅ जना थिरैलॅ छै।
चारो तरफ बहै छै गंगा
बीचें सुन्दर अलका छै,
उजरॅ-उजरॅ भवन फटिक के
मानिक-झालर-झलका छै।
कैलाशॅ के गोदीं नगरी
महामोद मन राजै छै,
जेना शंकर के जाँघॅ पर
गद्गद् उमा बिराजै छै।
वीणा-सुर मृदंग तालॅ पर
लहरै मधुकंठी के गीत,
सुधबुध बिसरी जड़वत खाढ़ॅ
बर्त्तमान लग मुग्ध अतीत।
जिनगी के आनन्द प्रेम लें
भरलॅ-सजलॅ छै संसार,
जेना प्रकृति जोगने राखै
अहरह टलटल मधु-संभार
अलका सें कनखल तक उतरी
केॅ गंगा के धारें-धार
मगन मनॅ सें बिचरै आठो
जोड़ी भरलॅ प्यार-दुलार।
बेगरै छै गंगा हिमगिरि में
लै केॅ दूनॅ छोह-उछाह,
जेना दीन-दुखी दिश दौड़ै
उपकारी के आतुर चाह।
चप्पा-चप्पा हिमवानें के
देखी आँख जुड़ाबै लेॅ
टौआबै छै आठो जोड़ी
धरती के सुख पाबै लेॅ।
ओषधिप्रस्त-जहां चमकै छै
जड़ी-जड़ी मणिदीप बनी,
सातो रिसी उतरलै जे ठाँ
शिव आज्ञा सें घटक बनी।
जहाँ हिमालय देह धरी केॅ
ऐलै रिसि अगुवानी लेॅ
अरुधतीं मैना सें लेलकै
जे ठाँ वचन भवानी लेॅ।
निरजासै छै आठो जोड़ों
ओकरॅ रूप मगन चित लाय
जेकरॅ दोसरॅ काट कहीं न
स्वरलोकॅ के कोन बड़ाय
गौरीशंकर बनें ‘अपर्णा’
बनलै ‘उमा’ तपोबल सें,
कमलें लेलकै ढाय कुलिश सें
मानॅ विजय मनोबल सें।
तप छेकै साधन जिनगो में
मनविच्छा फल पावे के
तप सीढ़ी जीवें केॅ सत-रित-
विस्तृत तायँ चढ़ाबै के।
तप मन के संकल्प आग रं
धधकै आठो जाम यहां
बिना जिरैने कोशिश पहुँचै
के, छै अंतिम ठाम जहाँ।
यै बन के पत्ता-पत्ता में
लिखलॅ गौरी के गरिमा,
ठमकी-ठमकी पढ़ै बसूनीं
रोमांचित-पुलकित महिमा।
अतरज भेलै कथा सुनो कॅे
जानी केॅ तप के सब बात
परबैतीं जेना काटलकै
जाड़ा - गरमी आ बरसात।
”लौलीनॅ छै रिसी-तपस्वी
तप में य हिमवानॅ पर
हवि भेज छै स्वरलोकॅ केॅ
रिचा - जोति के बाणॅ पर।”
”चलॅ देखावॅ ठाँव कहाँ
छै कोय तपस्बी-ज्ञानी के,”
कथा सुनी प्रीतम सें, हठ
में अड़लै मॅन जनानी के।
मधुमती
कोनी बाटें गेलै बहिना बसू हे बसूनियाँ?
अहे कोनो हे बाटें भेंऽटऽलै हे जोगी-मुनियाँ
सुचेता
जही बाटें गेलै बहिना बसू हे बसूनियाँ!
अहे वही रे बाटं भऽटऽलै हे जोगी-मुनियाँ!
हवन कुण्डलिया में अगिया जराये बहिना!
ऊँचेॅ सूरें गाबै छै हे वेद धुनियाँ!
अहे! रागें-रे भासें गाबै छै हे वेद धुनियाँ
अग्निदेव सातो जीहें हचियो सुकारै बहिना!
देखी - रे - देखी टराटक लागै हे वसूनियाँ।
अहे देखी-रे देखी टराटक लागै हे बसुनियाँ
एक रीसी देख बहिना! दूई रोसी देखै हे!
रीसिये-रोसी देखी केॅ बनऽलै जोगिनियाँ!
अहे! रीसिये-रीसी देखी केॅ बनऽलै जोगिनियाँ!!
”हिमलोक लागै सजना स्वरग्हौ स सुन्दर हे!
घूमी-रे घूमी गूँऽजै छै हे वेद धुनियाँ!
अहे! घूमी-रे-घूमी गूँऽजै छै हे! सुर धुनियाँ
”वशिष्ठ-आश्रम सजनी! आरो थोड़े दूऽरें हे!
जहां हे ऊषा गोऽरूपें रमै हे सजनियाँ!
अहे! जहाँ हे ऊषा गोऽरूपें रमै हे सजनियाँ!!”
चली भेलै नम्मा डेगें एकाकार स्वरलो’ हे!
जेना हे! गंगा शिव-जटाँ नामलै बहिनियाँ!
अहे! जेना हे! गंगा शिव-जटाँ नामलै बहिनियाँ!!