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दोस्त! / हरीश भादानी

दोस्त !
क्रूस पर अब भी चढ़ाए जाते हैं मसीहा !
बूढ़ी सांझ के पठारां पर जो गाड़ते हैं
जिन्दगी के धर्म की ताज़ा लिखी तख्ती
समय की रगड़ से फीकी पड़ी
अनुभव की ऋचाओं को जो अस्वीकारते हैं
गोलियां के शोर से
खामोश की जाती हैं अब भी ऐसी धड़कनें,
जिन्दा जला दिए जाते हैं अब भी
संकल्प के गेलिलियों !
बदबू के पहाड़ों की तराई में
आवाज़ की छैनी लगाए चोटते हैं जो जड़ों को,
साथ लेते हैं इकाइयों को कि-
गूँज और ऊँचे तक उठें
चिनगारियाँ चिटखती ही रहें
और आग लग जाए तो रंग देखें;
वे जो मुक्ति की संज्ञा लिए हर बोझ ढोते हैं,
बहुत पीछे से जुड़ी बेड़ियाँ पहने हुए भी
वे जो काई दूर छूने को घिसटते हैं
और अपने ही लिए जन्में,
पराई कोख में पलते
अनागत के लिए स्वराते हैं,
दागे जाते हैं अब भी
ऐसे मन खीज की सलाखों से
जहर दे दिया जाता है अब भी
सत्य के सुकरात को !
दोस्त,
क्रूस पर अब भी चढ़ाए जाते हैं मसीहा !