पौध को
नहीं निहारा
एक पल भी
फूल की पंखुरी तोड़ते वक्त
नहीं रखा रत्ती भर भी अफसोस
दीवान के
एक मिसरे में भी जमा नहीं
किया दोस्त का ख़याल
ज़र्रा को ज़र्रा भर भी
महसूस नहीं किया
ज़र्रा दिवस के दिन
घर
बेसाख़्ता आती जाती
कमसिन-सी उस कविता को
क्या किया
सच बताओ
कि वह अब जाना ही नहीं
चाहती तुम्हारे घर
नहीं किया ज़रूरत पर याद
राह देखते एक भाव को
दिया नहीं कई दिनों तक
अपने ही भीतर से आए
ख़त का जवाब
माना
तुमने ग़लत नहीं किया
पर यह भी ग़लत ही किया
कम से कम इतने तो अभावुक हो तुम
इतने तो अपराधी हो तुम