दोहा संख्या 161 से 170
श्री कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।161।
बालकन भूषन फल असन तृन सज्या द्रुम प्रीति।
तिन्ह समयन लंका दई यह रघुबर की रीति।162।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।163।
अबिचल राज बिभीषनहि दीन्ह राम रघुराज।
अजहुँ बिराजत लंक पर तुलसी सहित समाज।164।
कहा विभीषन लै मिल्यो कहा दियो रघुनाथ।
तुलसी यह जाने बिना मूढ़ मीजिहैं हाथ।165।
बैरि बंधु निसिचर अधम तज्यो न भरें कलंक।
झूठें अघ सिय परिहरी तुलसी साइँ ससंक।166।
तेहि समाज कियो कठिन पन जेहिं तौल्यो कैलास।
तुलसी प्रभु महिमा कहैंा सेवक को बिस्वास।167।
सभा सभासद निरखि पट पकरि उठायों हाथ।
तुलसी कियो इगारहों बसन बेस जदुनाथ।168।
त्राहि तीनि कह्यो द्रोपदी तुलसी राज समाज।
प्रथम बढ़े पट बिय बिकल चहत चकित निज काज।169।
सुख जीवन सब कोउ चहत सुख जीवन हरि हाथ।
तुलसी दाता मागनेउ देखिअत अबुध अनाथ।170।