दोहा संख्या 261 से 270
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद मुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार।261।
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नेन सर को अस लाग न जाहि।262।
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड।263।
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरू लोभ।
मुनि बिग्यान धम मन करहिं निमिष महुँ छोभ।264।
लोभ के इच्छा दंभ बल काम के केवल नारि।
क्रोध कें परूष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि।265।
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दाश्न दुखद मायारूपी नारि।266।
काह न पावक जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला केहि जग कालु न खाइ।267।
जनमपत्रिका बरति कै देखहु मनहिं बिचारि।
दारून बैरी मीचु के बिच बिराजति नारि।268।
दीपसिखा सम जुबति तनम न जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग।269।
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासत्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघपवतिह मूढ़ परे भवकूप।270।