दोहा संख्या 370 से 380
जो जो जेहिं रस मगन तहँ सेा मुदित मन मानि।
रसगुन दोष बिचारिबो रसिक रीति पहिचानि।371।
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जगज स अपजस दीन्ह।372।
लोक बेदहू लौं दगो नाम भले को पोच।
धर्मराज जम गाज पबि कहत सकोच न सोच।373।
बिरूचि परखिऐ सुजन जन राखि परखिऐ मंद।
बड़वानल सोषत उदधि हरष बढ़ावत चंद।374।
प्रभु सनमुख भएँ नीच नर होत निपट बिकराल।
रबिरूख लखि दरपन फटिक उगिलत ज्वालाजाल।375।
प्रभु समीप गत सुजन जन होत सुखद सुबिचार।
लवन जलधि जीवन जलद बरषत सुधा सुबारि।376।
नीच निरावहिं निरस तरू तुलसी सींचहिं ऊख।
पोषत पयद समान सब बिष पियूष के रूख।377।
बरषि बिस्व हरषित कहत हरत ताप अघ प्यास।
तुलसी दोष न जलद को जो जल जरै जवास।378।
अमर दानि जाचक मरहिं मरि मरि फिरि फिरि लेहिं।
तुलसी जाचक पातकी दातहि दूषन देहिं।379।
लखि गयंद लै चलत भजि स्वान सुखानो हाड़।
गज गुन मोल अहार बल महिमा जान कि राड़।380।