दोहा संख्या 481 से 490
तुलसी स्वारथ सामुहो परमारथ तन पीठि।
अंध कहें दुख पाइहै डिठिआरो केहि डीठि।481।
बिन आँखिन की पानहीं पहिचानत लखि पाय।
चारि नयन के नारि नर सूझत मीचु न माय।482।
जौ पै मूढ़ उपदेस के होते जोग जहान।
क्यों न सुजोधन बोध कै आए स्याम सुजान।483।
(सोरठा)
फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरूख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।484।
(दोहा)
रीझि आपनी बेझि पर खीझि बिचार बिहीन।
ते उपदेस न मानहीं मोह महोदधि मीन।485।
अनसमुझें अनुसोचनो अवसि समुझिऐ आयु।
तुलसी आपु न समुझिऐ पल पल पर परितापु।486।
कूप खनत मंदिर जरत आएँ धारि बबूर।
बवहिं नवहिं निज काज सिर कुमति सिरोमनि कूर।487।
निडर ईस ते बीस कै बीस बाहु सो होइ।
गयो कहैं सुमति सब भयो कुमति कह कोइ।488।
जो सुनि समुझि अनीति रत जागत रहै जु सोइ।
उपदेसिबो जगाइबो तुलसी उचित न होय।489।
बहु सुत बहु रूचि बहु बचन बहु अचार ब्यवहार।
इनकेा भलो मनाइबो यह अग्यान अपार।490।