दोहा संख्या 71 से 80
करिहौं कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस।
जहाँ तहाँ दुख पाइहौं तबहीं तुलसीदास।।71।।
बिंधि न ईंधन पाइऐ सागर जुरै न नीर।
परै उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीर।72।
बरसा को गोबर भयों केा चहै को करै प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति।73।
सबहि समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारिं।
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय तुलसी कहा बिचारि।।74।
तुलसी उद्यम करम जुग जब जेहि राम सुडीठि।
होइ सुफल सोइ ताहि सब सनमुख प्रभु तन पीठि।75।
राम कामतरू परिहरत सेवत कलि तरू ठूँठ।
स्वारथ परमारथ चहत सकल मनोरथ झूँठ।76।
निज दूषन गुन राम के समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकाल हूँ उभय लोक अनयास।77।
कै तोहि लागहिं राम प्रिय कै तू प्रभु प्रिय होहि।
दुइ में रूचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि।78।
तुलसी दुइ महँ एक ही खेल छाँडि छल खेलु।
कै करू ममता राम सों कै ममता परहेलु।79।
निगम अगम साहेब सुगम राम साँचिली चाह।
अंबु असन अवलोकिअत सुलभ सबै जग माँह।80।