शृंगार सुषमा
छत्र लगाये धनरिधर, बिहँसि बजावत वेनु।
बसौ हिये हरि हित-सहित, ग्वाल ग्वालिनि धेनु।।1।।
उर लगियत, परियत पगन, हौं ही करियत कान।
मौन गहौ मानौ कही, मैं न गही पिय मान।।2।।
कीजत इतौ न आतुरी, तजौ चातुरी चाल।
भावत घर रहनो न जौ, क्यौं आवत घर लाल।।3।।
दुरत न करत दुराव कत, अनत बसे जेहि हेत।
नयन नकारे देत हैं, आप नकारे देत।।4।।
केतिकहू सिख दीजियत, मन गहि मान सकैन।
होत पराये आपने, वा नैनन मिलि नैन।।5।।
तजहु सकुच उर निठुर उठु, अजहु तजी नहीं देहु।
नेक नवाजस करहु तौ, एव नवाजस लेतु।।6।।
प्रन न टरै तव, मम टरैं, प्रान-नाथ ये प्रान।
नभ घेरे आवहिं जलद, कीजे जलद पयान।।7।।
अलि मिस बोलि बुलाय कछु, हा साहस इतराय।
इतै चितै चट चोरि चित, लली चली यह जाय।।8।।
करि न दुराव दुरै न किहुँ, देहिं कहे रति रैन।
अलि साने मद बैन ये, ये अलसाने नैन।।9।।
मो तन तकि बतराय कछु, सखि सन सैनन माहिं।
छत से उतरि गई कहूँ, चित ते उतरत नाहिं।।10।।