Last modified on 29 दिसम्बर 2014, at 15:28

दोहा / भाग 3 / रसनिधि

पल पींजरन मैं दृगसुवा, जदपि मरत है प्यास।
तदपि तलफ जिय राखही, रूप-दरस-दस-आस।।21।।

जब जब वह ससि देत है, अपनी कला गँवाइ।
तब तब तुव मुख चंद पै, कला माँगि लै जाइ।।22।।

सुमन सहित आँसू-उदक, पल-अँजुरिन भरि लेत।
नैन-ब्रती तुव चंद-मुख, देखि अरघ कौं देत।।23।।

जब लग हिय दरपन रहै, कपट मोरचा छाइ।
तब लग सुन्दर मीत-मुख, कैसे दृगन दिखाइ।।24।।

कानन लग कैं तैं हमैं, कानन दियौ बसाइ।
सुचिती ह्वै तैं बाँसुरी, बस अब ब्रज मैं आइ।।25।।

मोहन बसुरी सौं कछू, मेरौ बस न बसाइ।
सुर-रसरी सौं सुवन-मगु, बाँधि मनै लै जाइ।।26।।

बिछुरत सुन्दर अधर तैं, रहत न जिहि घट साँस।
मुरली सम पाई न हम, प्रेम-प्रीत को आँस।।27।।

प्रेम-नगर दृग जोगिया, निस दिन फेरी देत।
दरस-भीख नन्दलाल पै, पल-झोरिन भरि लेत।।28।।

रूप ठगौरी डारि कै, मोहन गौ चितचोरि।
अंजन मिस जनु नैन ये, पियत हलाहल घोरि।।29।।

साधत इक छूटत सहस, लगत अमिन दृग गात।
अरजुन सम बानावली, तेरे दृग करिजात।।30।।