का छति राजा राव सासें, जो राखत बिलगाय।
दीन बन्धु सों दीनता, दीनहिं देत मिलाय।।31।।
लाभ मोटाई सो कहा, कहा तोंद सों काम।
हिये बसावति दीनता, दीन बन्धु बस जाम।।32।।
परे रहैं लाले भले, पेट भरन के हेत।
बलि बलि तोकों दीनता, दीठि न बिगरन देत।।33।।
सविनय सेवा सों सुभग, जग में धर्म न अन्य।
देति तासु तौफीक तैं, तोहिं दीनता धन्य।।34।।
घृनित बातहू धनिक की, सरहत सब स उमंग।
लछिमी-पति के पाँव की, धोवन पुजती गंग।।35।।
परधन लूटे बिनु बनत, कोउ न धनिक महान।
लूटि सिन्धु हरि हू बने, लछिमी पति भगवान।।37।।
पावन बनत अछूत हू, घनी गहै जग जौन।
लछिमी-पति यदि गहत नहिं, छुवत शंख को कौन।।38।।
पढ़े लिखे हो कैसहू, धन बिन मान न होय।
लछिमी-पति को भजत जग, सरसुति-पतिहिं न कोय।।38।।
ठगी किये हू धनिक को, बन्धु घटत नहिं मान।
लछिमी-पति ने बलि छल्यो, तऊ बने भगवान।।39।।
गनैं न औरन कछु धनी, नंगन सो भय खाहिं।
लछिमी-पति तजि रुद्र को, भक्त काहु के नाहिं।।40।।