Last modified on 29 दिसम्बर 2014, at 15:42

दोहा / भाग 7 / रसनिधि

उदौ करत जब प्रेम-रवि, पूरब दिसि तैं आइ।
कहू नैम तम जात है, देखौ जात बिलाइ।।61।।

चसमन चसमा प्रेम कौ, पहिले लेहु लगाइ।
सुंदर मुख वह मीत कौं, तब अवलोकौ आइ।।62।।

अद्भुत गत यह प्रेम की, बैनन कही न जाइ।
दरस भूख लागै दगन, भूखइ देत भगाइ।।63।।

प्रेम-पियाला पी छके, तेई हैं हुसियार।
जे माया मद सौं भरे, ते बूड़े मँझधार।।64।।

हरि बिछुरत बीती जु हिय, सो कछु कहत बनैन।
अकथ कथा यह प्रेम की, जिय जानै कै नैन।।65।।

उरझत दग बँधिं जात मन, कहौ कौन यह रीति।
प्रेम नगर मैं आई कै, देखी बड़ी अनीति।।66।।

नेम न ढूँढ़े पाइयै, जेहिं थल बाढ़ै प्रेम।
रहत आइ हरि दरस के, प्रेम आसरै नेम।।67।।

मन मैं बस कर भावते, कहौ कवन यह हेत।
प्रकट दृगन कों आइ कै, क्यों न दिखाई देत।।68।।

तौ तुम मेरै पलन तैं, पलक न होते ओट।
व्यापी होती जो तुमैं, ओट भये की चोट।।69।।

वह पीताम्बर की पवन, जब तक लगै न आइ।
सुमन कली अनुराग की, तब तक क्यौं बिगसाइ।।70।।