सूखा-बाढ़-अकाल है, कुदरत का आक्रोश
किया प्रदूषण अत्यधिक, मानव का है दोष।71।
महंगाई डायन डसे, निर्धन को दिन-रात
धनवानों की प्रियतमा, पल-पल करती घात।72।
महंगाई के राग से, बिगड़ गए सुरताल
सिर पर चढ़कर नाचती, झड़ते जाएँ बाल।73।
महंगी रोटी-दाल है, मुखिया तुझे सलाम
पूछे कौन ग़रीब को, इज्ज़त भी नीलाम।74।
आटा गीला हो गया, क्या खाओगे लाल
बहुत तेज इस दौर में, महंगाई की चाल।75।
आटा-चावल-दाल क्या, सत्तू तक है दूर
महंगाई के खेल में, हिम्मत चकनाचूर।76।
बच्चे बिलखें भूख से, पिता रहा है काँप
डसने को आतुर खड़ा, महंगाई का साँप।77।
महंगाई प्रतिपल बढे, कैसे हों हम तृप्त
कलयुग का अहसास है, भूख-प्यास में लिप्त।78।
महंगाई के प्रेत ने, किया लाल को मौन
मात-पिता हैरान हैं, उनको पूछे कौन।79।
गपशप में होने लगी, महंगाई की बात
वेतन ज्यों का त्यों रहा, दाम बढे दिन-रात।80।