यौवन सरिता उफनती, तोड़ देह के कूल।
मुक्त हँसी से झर। रहे, हरसिंगार के फूल।।
शीत शरद ऋतु की गयी, किन्तु न आये कन्त।
बिना बुलाये आ गया, बैरी अतिथि बसन्त।।
खिल खिल कर जूही हँसी, शरमायी कचनार।।
बेला घूँघट में खिली, चौंका हरसिंगार।।
हृदय द्वार पर लिख दिया, है आगमन निषेध।
भीतर आ बोला प्रणय, मुझे दृष्टि का वेध।।
मन - चौखट मोहन खड़ा, मन्द मन्द मुस्काय।
मन मथ मथ माखन करूँ, मन मोहन ले जाय।।
कृष्ण कृष्ण कहते रहो, जब तक है यह देह।
जाने कब घनश्याम का, जागे सहज सनेह।।
झिमिर झिमिर झींसी गिरे, झूमे हरसिंगार।
प्रणय प्रीति के बादरा, बरसे मेरे द्वार।।