सब को गंगा कर रही, पाप भार से मुक्त।
बदले में हम ने किया, उसे प्रदूषण युक्त।।
आओ हम सब फिर चलें, वृंदावन की ओर।
गोचारण करते जहाँ, दाऊ नन्द किशोर।।
यमुना की छल छल जहाँ, रहे मिटाती मोह।
वहीं मिलेगा सांवरा, चिदानन्द सन्दोह।।
पावस ऋतु का निर्गमन, शरद काल का वास।
दिन दिन करती धूप है, छुपने का अभ्यास।।
मन माखन मटकी लिये, ढूंढ़ फिरी चहुँ ओर।
चितवन कहती चल वहाँ, जहाँ बसा चितचोर।।
कनक छरी सी राधिका, अति गोरी सुकुमार।
परस हुआ घनश्याम का, बनी फूल कचनार।।
निन्दा कर निज धर्म की, चाह रहे हैं मान।
वो खो देते हैं स्वयं, श्रद्धा अरु सम्मान।।