मन्द मन्द बहती पवन, मन को रही लुभाय।
मनमोहन की नील छवि, लेती चित्त चुराय।।
ठुमुक ठुमुक कर हरि चले, नन्द बबा के धाम।
मुग्ध पिता हैं देखते, सुन्दर छवि अभिराम।।
ठुमुक ठुमुक श्री रामजी, धरें धरा पर पाँव।
मगन हृदय माता सभी, झुक चूमें वह ठाँव।।
कवि कहते हैं स्वयं को जो केवल लयकार।
छंद बंद जाने नहीं, फिर भी जय जयकार।।
पल्लव पल्लव नाचता, हवा बहे झकझोर।
जैसे लख छवि श्याम की, नाचे मन का मोर।।
है बसन्त का आगमन, सुरभित हुआ बतास।
तरु पल्लव हैं झूमते, पिया मिलन की आस।।
विकल हृदय से सोचते, पांचों पांडव वीर।
अनिरत रह कर कर्म से, क्यों फोड़ें तकदीर।।