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दोहा सप्तक-51 / रंजना वर्मा

गीली गीली रात में, निकली सीली भोर।
पीली पीली धूप भी, गयी गगन की ओर।।

उत्तर के नागर सभी, ताप रहे हैं आग।
चिथड़ा कथरी ओढ़ के, रात रही है जाग।।

गीली गीली सर्दियाँ, लगीं कँपाने हाड़।
बार बार शीतल पवन, खड़का रही किवाड़।।

आया था चुपचाप ही, चला गया चुपचाप।
खौल रहा दिल उठ रही, ठंढी ठंढी भाप।।

पवन काँप बाहर चला, लगा तपने धूप।
जाड़े से लेकिन हुआ, ठंढा सूरज रूप।।

साँसों की सीधी चढ़ी, दुलहन जैसी लाज।
धड़कन के संग याद भी, सिहर रही है आज।।

ओढ़ रजाई मेघ की, सूरज है बेहाल।
ठिठुरन बढ़ती सीत की, किससे करे सवाल।।