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दोहा सप्तक-54 / रंजना वर्मा

हुईं भावनाएं मुखर, जैसे सुमन - सुगन्ध।
अलियों की गुनगुन सदृश, चले बिखर मधुछंद।।

साँसें हुईं सुवासिता, खुशबू लाया वात।
पर यादों का काफ़िला,करता है आघात।।

चख चख मीठे बेर का, शबरी करे प्रबन्ध।
जात पाँत जाने नहीं, सुदृढ़ स्नेह सम्बन्ध।।

हे निष्ठुर जग है किया, तेरा क्या अपराध।
दण्ड मुझे जो दे रहा, तोड़ रहा है साध।।

निष्ठुर पीड़ा की लहर, आती है क्यों पास।
क्यों कर जातीं हृदय को, बारम्बार उदास।।

जीवन में इंसान को, कब मिलता है चैन।
प्रेमपूर्ण खुशियाँ लिये, सतत न आती रैन।।

दुनियाँ कहती है सखी, एक ब्रह्म परमेश।
होता दिनों का सखा, तो करता क्यों ऐश।।