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दोहा सप्तक-66 / रंजना वर्मा

सिर पर पगड़ी कमर में, बंधी रहे तलवार।
सिर सदैव ऊँचा रखे, मानुष पानीदार।।

पानी की हर बूँद में, भरा तृप्ति आभास।
बिन पानी बुझती नही , कभी किसी की प्यास।।

सबको पानी चाहिये, धरती या आकाश।
नदी तलैया भी रखे, पानी की ही आस।।

जीवन जीने का बना, जीवन ही आधार।
जग में पानी के बिना, सब कुछ है बेकार।।

भोर हुई तपने लगा, विकट भानु का रूप।
अग्निबाण बरसा रही, तीखी तीखी धूप।।

कूप ताल सब सूखते, कालिंदी अपवाद।
कृश तन काया हो गयी, कृष्ण गमन के बाद।।

अग्नि शलाका सी लगे, निर्मम विषम बयार।
बरसा दे दो बूँद नभ, सब करते मनुहार।।