नीलाम्बर करता सदा, धरती पर उपकार।
बरसा जाता प्रेम से, निर्मल जल की धार।।
पतँग कामना की उड़े, सदा गगन की ओर।
मन बालक थामे रहे, कस कर उसकी डोर।।
रहे अनवरत गूँजता, अनहद मधु रस बोल।
सुन तू आँखें मूँद कर, मन की खिड़की खोल।।
निश्छल मन ही सुन सके, संसृति का संगीत।
जिनके मन में हो कपट, वो क्या जाने प्रीत।।
जाति धर्म की आग में, मत जल शलभ समान।
आत्म - तत्व है एक ही, इस को ले पहचान।।
मनमोहन घनश्याम मत, बीच राह में छोड़।
जकड़ें बन्धन मोह के, अब तो आ कर तोड़।।
रिक्त पड़ी गंगाजली, व्याकुल है परिवेश।
हुआ प्रदूषण युक्त अब, नदियों वाला देश।।