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दोहा सप्तक-86 / रंजना वर्मा

मधुर मधुर रचना करूँ, जो सबके मन भाय।
रुचिर छंद दोहा लिखूँ, माँ को शीश नवाय।।

चरण शरण हूँ आ गयी, हे अभिमत दातार।
मात कृपा कर दीजिये, निर्मल बुद्धि उदार।।

महक उठी चंपा जुही, विहँस रहा कचनार।
फिर दस्तक देने लगा, मनसिज मन के द्वार।।

खड़ा साँवरा द्वार पर, करता है मनुहार।
दर्शन हित प्यासे नयन, खोल राधिके द्वार।।

अधर साँवरे के धरी, मुरली करे पुकार।
द्वारे पर साजन खड़े, खोलो मन के द्वार।।

जीवन मे यदि दुख मिला, मत मुख करो विवर्ण।
तप कर तीखी आग में, सदा निखरता स्वर्ण।।

राष्ट्र सदा उन्नति करे, पाये नित सम्मान।
बने विश्वगुरु जगत में, दो माता वरदान।।