गीत, ग़ज़ल, चौपाइयाँ, दोहा, मुक्तक पस्त।
फ़िल्मी धुन पर अब 'अमन', दुनिया होती मस्त।।
जहाँ उजाला चाहिए, वहाँ अँधेरा घोर।
सब्ज़ी मंडी की तरह, संसद में है शोर।।
घर में रखने को अमन, वन-वन भटके राम।
हम मंदिर को लड़ रहे, लेकर उनका नाम।।
गम, आँसू, पीड़ा, विरह, और हाथ में जाम।
लगा इश्क का रोग था, हुआ यही अंजाम।।
मैंने देखा आज फिर, इक बालक मासूम।
जूठा पत्तल हाथ में, लिए रहा था चूम।।
घर के चूल्हे के लिए, छोड़ा हमने गाँव
शहरी डायन ने डसा, लौटे उल्टे पाँव
बरछी, बम, बन्दूक़ भी, उसके आगे मूक।।
मार पड़े जब वक़्त की, नहीं निकलती हूक।।
मेहनतकश मजदूरनी, गई वक्त से हार।
तब मुखिया के सामने, कपड़े दिए उतार।।
मिट्टी से हर तन बना, मिट्टी बहुत अमीर।
मिट्टी होना एक दिन, सबका यहाँ शरीर।।
लड़के वाले चाहते, गहने रुपए कार।
निर्धन लड़की का बसे, कैसे घर संसार।।