कविता कवि की ईश है, कविता कवि की शक्ति।
कविता की कर साधना, कविता की कर भक्ति।।
चल होरी सब छोड़कर, इस दुनिया से दूर।
प्रेमचंद का देश अब, हुआ बहुत मगरूर।।
भूख-प्यास से त्रस्त हैं, तन पर बची न चाम।
उन्हें फर्क पड़ता नहीं, बढ़ें- घटें कुछ दाम।।
ओ! मछुआरे डाल मत, इस पोखर में जाल।
मछली को मालूम है, तेरी हर इक चाल।।
जड़ से भी जुड़कर रहो, बढ़ो प्रगति की ओर।
चरखी बँधी पतंग ज्यों, छुए गगन के छोर।।
पोखर, जामुन, रास्ता, आम-नीम की छाँव।
अक्सर मुझसे पूछते, छोड़ दिया क्यों गाँव?
बरगद बोला चीख़कर, तुझे न दूगाँ छाँह।
बेरहमी से काट दी, तूने मेरी बाँह।।
नित्य सुबह से शाम तक, उछल-कूद हुड़दंग।
यौवन तक धूमिल हुए, बचपन के सब रंग।।
बस में राजा के हुई, अधरों की मुस्कान।
हँसने पर होगी सज़ा, रोने पर सम्मान।।
तन्हा-तन्हा ज़िन्दगी, नहीं कटेगी हाय!
व्यर्थ बिना माधुर्य सब, ज्यों चीनी बिन चाय।।