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दोहे / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

नंगों की इस भीड़ में ,नहीं शर्म का काम ।

इतने नंगे हो गए , नंगा हुआ हमाम ॥ 1॥


मन में कपट कटार है , मुख पर है मुस्कान ।

डोलते अब गली-गली , ऐसे ही इंसान ॥ 2॥


नफ़रत सींची रात -दिन ,खेला नंगा खेल ।

आग लगाकर डालते ,खुद ही उस पर तेल ॥3॥


जनता का जीना हुआ ,दो पल भी दुश्वार ।

गर्दन उनके हाथ में जिनके हाथ कटार ॥4॥


ऊँची-ऊँची कुर्सियाँ , लिपटे काले नाग ।

डँसने पर बचना नहीं , भाग सके तो भाग ॥5॥


रात अंधेरी घिर गई , मुश्किल इसकी भोर ।

भाग्य विधाता बन गए , डाकू ,लम्पट ,चोर ॥6॥


गुण्डों के बल पर चला , राजनीति का खेल ।

भले आदमी रो रहे ,ऐसी पड़ी नकेल ॥7॥


बनी द्रौपदी चीखती ,अपनी जनता आज ।

दौर दुश्शासन का चला ,कौन बचाए लाज ॥8॥


अफ़सर –अजगर दो खड़े , काको लागौं पाँय ।

बलिहारी अजगर तुम्हें ,अफ़सर दियौ बताय ॥9


बाती कौए ले उड़े , चील पी गई तेल ।

बाज देश में खेलते , लुका- छिपी का खेल ॥10 ॥


बिना खाद, पानी बढ़ा , नभ तक भ्रष्टाचार ।

सदाचार का खोदकर , फेंका खर –पतवार ॥ 11॥


जनता की गर्दन सहे ,झटके और हलाल ।

जनसेवक जी खा रहे ,रोज़-रोज़ तर माल ।।12॥


छल करने का लग सके ,ज़रा न तन पर दाग़ ।

आस्तीन में रहा करो , बन कर काला नाग ॥13॥


मित्रों में हमने लिखा ,जबसे उनका नाम ।

धोखा खाने का किया खुद एक इन्तज़ाम ॥14॥


शंका में डूबे हुए , कहते तोताराम ।

पर निन्दा का नाश्ता , कर लो आठों याम ॥15॥