कत अचरज! सर प्रेम के, डूबि सकैं नहिं सोइ।
भारी बोझो लाज को, जिनके माथे होइ॥
सीस अलक, दृग पूतरी, त्यों कपोल तिल पाइ।
मिटी स्यामता-साध नहिं, गुदनो लियो गुदाइ॥
अपुनो मोहन रूप जो, तुमहिं निरखिबो होय।
इन नैनन में आई कै, नैकु लेहु पिय! जोय॥
पंचाली को पट जथा, खींचे बाढयो और।
सुरझाएं अरुझात अरु, नैना वाही तौर॥
रूप-कनी इन चखनि गडि, जखम करति भरपूर।
कसकि कसकि जिय लेति है, कबं होति न दूर॥
नासा मोरि, कराहि कै, अंगनि भौंहीन ऎठि।
कांटो नाहिं काढन दियो, कांटे-सी हिय पैठि॥
बंसी! कर न गरूर हरि, धरत अधर हर-जाम।
अधरन लाए रहत , रटत हमारोइ नाम॥