जब से नगरी में बना, चुप रहना क़ानून।
हम जैसों की चुप्पियाँ, हुईं और बातून।।
राजा देखे महल से, खिड़की भर आकाश।
फुटपाथों की ज़िन्दगी, उसको दिखती काश।।
बेबस परजा छोड़ती, गरम-गरम उच्छ्वास।
अबकी सरदी में रहा, गरमी का अहसास।।
बस्ती जलती देख कर, राजा था हलकान।
चढ़ा अटारी देखने, काम हुआ आसान।।
पूरी बस्ती हो गयी, इक मलबे का ढेर।
आप लड़ाएँ ठाठ से, तीतर और बटेर।।
औंधे मुँह नीचे गिरे, गुम्बद के आदर्श
दीवारों के दिल फटे, हँसी उड़ायें फ़र्श।
जारी है हुक्काम का, जनता को फ़रमान।
आँखों में सागर रहे, चेहरा रेगिस्तान।।
जो भी पहुँचा महल में, वही हुआ मखसूस।
कंदीलों के दर्द को, क्या समझे फ़ानूस।।
राजा तेरे द्वार से, निकला आज जुलूस।
जनता के आक्रोश को, कुछ तो कर महसूस।।
तू तो बैठा महल में, तुझको क्या मालूम।
खुले गगन के आसरे, काटे रात हुजूम।।