जन-सेवा के नाम पर, सत्ता को है छूट।
करदाता के खून से, चाहे जितना लूट॥
हिंसा का किस धर्म ने, दिया बताओ साथ।
दस्ताने बस धर्म के, राजनीति के हाथ॥
राजनीति का तंत्र है, जात-धरम का मंत्र।
सम्मोहित जनता सहे, सत्ता का षड्यंत्र॥
बूढ़ी माँ जैसा हुआ इस धरती का हाल
बुरी दशा कर फेंकते, जिसके अपने लाल।
धरा द्रौपदी की तरह, भर आँखों में नीर।
कातर हो कर मांगती, हरियाली का चीर॥
चुप रहते हैं आजकल, सारे रोशनदान।
गए शहर को छोड़ के, नन्हे से मेहमान॥
तपते जलते ज्येष्ठ ने, लिखा मेघ को पत्र।
सावन लेकर आगया, बारिश वाला सत्र॥
छप-छप करती भीगती, कहाँ गयी वह शाम।
सावन का मतलब बचा, घंटों ट्रैफिक जाम॥
यादों जैसी हो गयी, अब तो ये बरसात।
चाहो तो बरसे नहीं और कभी बिन बात॥
मिला नहीं जिनको कभी, सघन प्रेम का पाश।
उन अँखियों की कोर से, बरस रहा आकाश॥
जब जब बोली ज़िंदगी, खाली मेरे हाथ।
हँसकर बोला दर्द ये, मैं हूँ तेरे साथ॥