(1)
जिन नयनों में उमड़-घुमड़ कर
कई बार लौटे थे बादल
सहन नहीं हो सका तुम्हारा
स्नेह, नयन बिन बादल, बरसे
स्वाभिमान ने रोका उनको
जग-लज्जा ने टोका उनको
पिघला पाया नहीं तनिक रे !
दुख-झंझा का झोंका उनको
प्रेमिल, हल्की-सी बयान ने
किया उन्हें बाहर-भीतर से
(2)
किन्तु, आज के मानव को तो
लगता, कोई हृदय नहीं है
कोई नहीं स्नेह से सिंचित
प्रेमिल-स्नेहिल-सदय नहीं है
अट्टहास करती दानवता
लहूलुहान तृषित मानवता
एक घूँट मीठे पानी को
एक बूँद आँसू को तरसे