Last modified on 6 नवम्बर 2009, at 09:48

दो चिराग़ / अली सरदार जाफ़री

तीरगी के सियाह ग़ारों से
शहपरों की सदाएँ आती हैं
ले के झोंकों की तेज़ तलवारें
ठण्डी-ठण्डी हवाएँ आती हैं
बर्फ़ ने जिन पे धार रक्खी है

एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार
इक चिराग़ और एक दोशीज़ा<ref>किशोरी</ref>
वोह बुझी-सी है वह उदास-सा है
दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में
तीरगी और हवा से लड़ते हैं
तीरगी उठ रही है मैदाँ में
फ़ौज-दर-फ़ौज बादलों की तरह
और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़
तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को
भींच लेते हैं मैले आँचल को
लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है
शो’ला रह-रह के थरथराता है
नंगी बूढ़ी ज़मीन काँपती है

तीरगी अब सियह समन्दर है
और हवा हो गयी है दीवानी
या तो दोनों चिराग़ गुल होंगे
या करेंगे वो शो’ला-अफ़शानी<ref>अंगारे बरसाना </ref>
फूँक डालेंगे तीरगी की मता<ref>अन्धकार की सत्ता[सम्पत्ति]</ref>

पर मुझे एतिमाद<ref>भरोसा</ref> है इन पर
गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं
दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला
दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं

शब्दार्थ
<references/>