कविता के साथ चली चाकरी चालीस साल
आखर मिटाए कब मिटे हैं ललाट के
रहा मैं दो नावों पे सवार-लीला राम की थी
राम ही लगाएंगे किनारे किसी घाट के
शारदा को नमन कबीरा को प्रणाम किया
छुए न चरण किसी चारण या भाट के
तोड़ गई ‘ग़ालिब’ को तीन महीनों की क़ैद
ताड़-सा तना हूँ दो-दो उम्र क़ैद काट के