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दो साँप / स्वप्निल श्रीवास्तव


मेरे घर में रहते थे दो ज़हरीले साँप

माँ ने इन्हें देखा था

उनके सिर पर उगी हुई थी बालों की कलगी

पिता ने उन्हें फुंफकारते हुए देखा था

सोते समय जब वे धरन पर लटके हुए दिखाई देते थे

पिता गोहार लगाकर बटोर लेते थे गाँव


लाठी-बल्लम-भाला लेकर आते थे गाँव वाले

लेकिन देखते-देखते गायब हो जाते थे साँप

हाथों में थमी रह जाती थीं लालटेनें-लाठियाँ


साँप छोड़ जाते रहे

दहशत के केंचुल


एक दिन संपेरे आए

बीन बजाकर निकाले दो साँप

सँपेरों ने कहा

इन ज़हरीले साँपों के बीच कैसे रहते थे आप लोग

ये सौ साल पुराने साँप हैं

काट लें तो न मांगे पानी

ये आदमी से भी ज़हरीले साँप हैं


पिता बहुत प्रसन्न हुए

चलो निकल तो आए साँप

पर माँ

अब भी चिल्ला उठती है

देखो-देखो

वे हैं साँप