लकीरें गहरी हो गयी है,
बुधुआ मांझी के माथे की ।
स्याह तल पर उभर आये कई खारे झील ।
सिमट गया है आकाश का सारा विस्तार
उसके आस पास।
दुनियाँ हो गयी है दो हाथ की।
मिट्टी का घर, छोटे बच्चे, बैल, बकरियाँ और
खेत का छोटा-सा टुकड़ा
इससे आगे है एक मोटी दीवार
बिना खेत और घर के कैसे जियेगा?
इससे जुदा क्या दुनियाँ हो सकती है?
उनकी जमीन के नीचे ही क्यों निकलता है कोयला?
पर वह किस पर करे क्रोध
अपने भाग्य पर, पूर्वजों पर, सिंग बोंगा पर?
उसके आगे है घुप्प अँधेरा
वह धंसता जा रहा है जमीन के अन्दर
उसकी देह परिवर्तित हो रही काले पत्थर में
इस कोयले में शामिल है उसके पूर्वजों की अस्थियाँ।
उनके पूर्वज भी उन्हीं की तरह काले थे।
क्या यूँ ही उजाड़े जाते लोग
अगर कोयला सफ़ेद होता?
उसकी आँखे दहक उठी है अंगारे की तरह
आग लग गयी है कोयले की खदान में...