धूप को भी धूप चुभे
दीवारें रंग रोंगन से शरमा जाए
वो छुटकी जब तुतला के बोले
फसलें बिन पानी लहलहाएँ
रेत भी आसमान की तरफ
एक उम्मीद से उड़े
कागज की मुड़ी।तुड़ी कश्तियाँ
नए आकारों में ढल जाएँ
वो छुटकी जब भी तुतला के बोले
पूरे घर में नया जीवन आ जाए
वो जब
मौहल्लें भर की गलियों में
मुस्काती खनखाती
दौड़ती भागती है
ख्वाइशें मचलती फिरें
उमंगें दुआएँ मांगती हंै
पूर्णिमा सा फिर उजियारा हो जाए
धूप को भी धूप चुभे
दीवारें रंग रोंगन से शरमा जाए॥