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द्रुपद सुता-खण्ड-01 / रंजना वर्मा

सांवली सलोनी श्याम, श्याम सुकुमारी शुचि,
पांडवों की रानी कुरु, सभा में क्यों आयी है।
अनायास आयी नहीं, है ये निज कामना से,
सप्रयास सभा में तो, आज गयी लायी है।
कौरव कुचाली कर्म, करते कुटिल नित,
द्यूत की नयी ही यहाँ, रीति जो चलायी है।
राज-पाट हाट-बाट, छल से हैं जीते सब,
जीती भ्रातृ-जाया रीति, नीति तो भुलायी है।। 1।।

द्रुपद-सुता ये काले, केश भले वेश वाली,
कैसी है अनोखी दिव्य, कांति शांति वाली है।
नीले नीले नैन जैसे, झील का सजल तल,
सांवला बदन जैसे, सांध्य की सु-लाली है।
श्वेत दन्तावली दूध, धोयी सी सुहानी हँसी,
गालों पे भँवर जैसे, सरिता निराली है।
पंकज की पंखुरी से, लिपटे अधर लाल,
चिबुक सलोनी दीप्ति, कैसी छवि शाली है।। 2।।

सीमन्त की रेख लाल, लाल है विशाल भाल,
जलता अंगार लायी, बिंदी में है भर के।
पलकें उठाती झुकी, झुकी मन्द गति से तो,
दृग से प्रकाश-राशि, जाती है बिखर के।
वायु से हिलायी गयी, लवंग-लता हो जैसे,
देह-वल्लरी है काँप, रही थर थर के।
लाज की है मारी पांच, पतियों की प्यारी नारि,
देखती सभा को नैन, अश्रु भर भर के।। 3।।