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द्रुपद सुता-खण्ड-09 / रंजना वर्मा

खौलने लगा है व्योम, जलता है रोम रोम,
रोष से विवश नेत्र, हुए लाल लाल हैं।
कैसी बेबसी है क्रूर, कर्ण की हँसी को सुन,
लगता है दीखता न, इसे निज काल है।
मौन धृतराष्ट्र दृष्टि, वक्र है शकुनि की भी,
धृष्ट ये सुयोधन भी, ठोंक रहा ताल है।
आँसुओं की धार बह, पूछती है बार-बार,
बोल द्रौपदी ये तेरी, कैसी ससुराल है।। 25।।

कहता सुयोधन है-पाँच पतियों की प्रिया,
ऐसे कायरों से सोच, के क्या प्रीति जोड़ी है ?
बनते थे महावीर, वीर रणधीर बड़े,
नारी की पुकार सुन, कैसे पीठ मोड़ी है।
भले ही छली हूँ मैं ये, ऐसे बुरे व्यसनी हैं,
रोक सके निज को न, रीति नीति तोड़ी है।
महलों की रानी आज, दासी से भी हेय बनी,
तुझ से भली तो मेरी, दासी ये निगोड़ी है।। 26।।

सूत-सुत कह जिसे, त्यागा था स्वयम्बर में,
सूत-सुत वो ही बना, न्याय-अधिकारी है।
पाँच में बंटी जो आज, सौ में बंट जाये यदि,
हानि भला कैसी तू तो, खुद से ही हारी है।
सच कहता हूँ पाँच, स्वामी जो बनाये तू ने,
आज उसी हेतु हुई, दशा ये तुम्हारी है।
बहुत हँसी थी उस, दिवस अटारी चढ़,
कुरु के सुतों की आज, हँसने की बारी है।। 27।।